Saturday, July 20, 2013

इंतज़ार-ए-इंतकाम

दोस्तों, ये बात कोई ८ साल पहले की है। मेरी मौसी जो की पहले हेलेट हॉस्पिटल के पास रहती थी, वहां से कानपुर के दुसरे छोर पर स्थित विकास नगर नामक एरिया में स्थानातरित हो गयीं थी। वहां उन्होंने एक घर लिया था अच्छा खासा आलीशान घर था वह।

उस घर के सामने एक स्कूल भी है, शायद नारायण करके कुछ नाम है। काफी वक़्त हुआ वहां गए हुए इसलिए ठीक से उस स्कूल का नाम याद नहीं है। खैर मैं घर के बारे में बताता हूँ, वो घर देखने में बहुत खुबसूरत था। काफी बड़ा घर था मगर वो घर अक्सर अकेले लोगों को भाता नहीं था। मतलब कोई भी वहां दिन में भी अकेले ठेहेरना पसंद नहीं करता था। उसकी वजह थी घर का काफी बड़ा होना और वहां अक्सर दोपहर और रात को घर में ऐसी शांति सी छा जाती थी मानो किसी कब्रस्तान में आ गए हों। उस घर में कई कमरों में तो कभी सूरज की रौशनी भी नहीं पहुँचती थी। इसलिए वो घर बहार से देखने में जितना सुन्दर था अन्दर से उतना ही डरावना लगता था। लेकिन मौसी और उनके परिवार को इसकी कोई चिंता नहीं थी क्योकि वो ज्यादा लोग थे और घर में कोई भी ऐसा नहीं था की जिसे भूतो पर विश्वास हो।

जब से मौसी और उनका परिवार वहां रहने गया तो उस मकान में रौनक आई और वो मकान से घर बना। करीब सब कुछ सामान्य और खुशहाल था करीब ६ महीने तक। उसके बाद वहां अजीब सी घटनाएं घटी। घर के सबसे आगे वाले दो कमरे में से एक मौसी के ससुर जी का कमरा था और दूसरा मेहमानों के लिए था।

जिस कमरे में दादा जी (मौसी के ससुर जी) रहते थे, उस कमरे में दरवाज़े के पास उन्होंने अपना पलंग लगा रखा था। सर्दियों का वक़्त था, दादा जी ने हवा आने की वजह से पलंग को दूसरी तरफ लगवाया और जो की कमरे के बीचो बीच की जगह थी। पलंग लगवाने के बाद उस रात जब दादा जी सोये तो उन्होंने एक सपना देखा की एक बड़ा सा करीब दस फुट का आदमी एक फरसा लेकर उनकी पलंग के पास आया और उस वक़्त दादा जी खुद को हिल भी नहीं पा रहे और न ही मुह से आवाज़ निकल रही थी। फिर उसने फरसा उठाया और जोरदार वार किया उनकी गर्दन पर। उसके वार से दादा जी की आंखें खुल गयीं और वो पसीने से भीगे हुए थे ठण्ड के मौसम में भी। फिर दादा जी उठे और वक़्त देखा तो दो बजने में ५ मिनट बाकि थे। सपना समझ कर बात को नज़रंदाज़ किया और उन्होंने पास रखे गिलास से पानी पिया और वापस सोने की कोशिश करने लगे।

थोड़ी देर बाद उन्हें फिर से नींद आ गयी इस बार उन्होंने फिर वही सपना देखा फिर से वही आदमी फरसा लेके खड़ा था और दादा जी की निगाह पड़ते ही उसने फरसे से दादा जी की गर्दन पर वार कर दिया। दादा जी की आंख फिर से खुल गयी और इस बार सपने ने दादा जी का दिमाग ख़राब कर दिया था। वो समझ चुके थे के ये कोई आम सपना नहीं है, कोई तो है यहाँ जो नहीं चाहता यहाँ पर किसी की मौजूदगी। इस विचार और उधेड़बुन में उन्होंने सपने दिखने वाली उस शक्ति को समझने की कोशिश की, वो सही थी या गलत थी? गलत होती तो बीते ६ महीने पहले ही मुझे नुक्सान पहुंचा चुकी होती, और अगर सही है तो ये रूप और ये वार क्यों कर रही है? उनकी कुछ समझ नहीं आ रहा था। क्या करें इतनी रात को क्या न करें? और सुबह उठ कर भी क्या कर लेंगे? फिर सोचा की पहले परिवार में इस बात पर विचार विमर्श किया जाये उसके बाद देखा जाये की क्या होता है?

उन्होंने रात जागते जागते काट दी, सुबह नाश्ते के वक़्त उन्होंने सबको एक जगह बुलाया और बीती रात की पूरी कहानी बता डाली। दादा जी कह रहे थे इसलिए कोई इस बात को टाल भी नहीं सकता था, और फिर कोई भी सपना दो बार आये तो वो शायद ही इत्तेफाक हो। दादा जी ने सबसे पूछा की क्या किया जाये?

मौसा जी ने कहा के "किसी भी तांत्रिक को बुलाना या उस पर विश्वास करना ठीक नहीं है। मुझे तांत्रिको पर विश्वास नहीं है।"

दादा जी ने उनकी तरफ देखा फिर बिना कुछ बोले मौसी जी के सबसे बड़े बेटे यानि मेरे भईया से इशारे में पूछा। भईया को कुछ समझ नहीं आया तो उन्होंने सीधे तौर पर कह दिया के "दादा जी आज आप मेहमानों के कमरे में सो जाओ, मैं वहां सो जाता हूँ। देखते हैं वहां सच में कोई बात है या सिर्फ आपको कोई डरना चाहता है।"

दादा जी ने पहले तो उन्हें मना किया मगर फिर भईया के मनाने पर दादा जी को बात सही लगी और उन्होंने वैसा करना ही उचित समझा और उस रात वो बगल के कमरे में जो की मेहमानों के लिए था वहां सोना मंजूर कर लिया।

उस रात दादा जी खाना खाने के बाद मेहमानों वाले कमरे में सोने चले गए। वो वहां लेटे हुए थे और दरवाज़ा खोल रखा था। उन्हें बड़े भईया की चिंता लगी हुयी थी कहीं अकेले में डर न जाएँ। बड़े भईया को आने में थोड़ी देर हो गयी थी इसलिए वो बाद में सोने आने वाले थे और दादा जी खुले दरवाज़े से उनके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वो इस तरह से लेटे हुए थे की उन्हें दुसरे कमरे का दरवाज़ा दिख रहा था। तभी उन्होंने देखा की बड़े भईया तेज़ी से आये और दरवाज़ा खोलकर अन्दर जाने लगे। दादा जी ने दो तीन बार नाम लेकर उन्हें आवाज़ लगायी मगर उन्होंने अनसुना कर दिया और कमरे में जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया। दादा जी ने सोचा की ये कैसा बर्ताव कर रहा है? शायद अन्दर से भाई या बहन से लड़कर आया होगा। इस तरह उन्होंने अपने मन में ही सवाल जवाब से अपना मन शांत कर लिया। और दरवाज़े से बाहर ठण्ड में खड़े पेड़ पौधों को निहारने लगे।

दादा जी बाहर देख ही रहे थे की अचानक उन्हें किसी के आने की आवाज़ सुनाई दी, उन्होंने सोचा शायद अजय(छोटे भईया) होगा। फिर उन्होंने देखा की बड़े भईया आये कमरे का दरवाज़ा खोलने लगे। ये देख कर तो दादा जी के होश उड़ गए, वो कुछ नहीं बोले बस देख रहे थे। बड़े भईया न दरवाज़े की कुंडी खोली और दादा जी को आवाज़ लगायी "दादा, सो गए क्या?"

"नहीं, अभी नहीं। क्या हुआ?" दादा जी ने जवाब देकर सवाल किया।

"कुछ चाहिए तो नहीं?" भईया ने पूछा।

"नहीं, कुछ नहीं चाहिए।" दादा जी ने जवाब दिया। वो अभी भी अपनी आँखों की सच्चाई और वहम के बीच अंतर ढूंढ़ रहे थे।

"ये दरवाज़ा बंद कर लो वरना ठण्ड अन्दर आयेगी। " भईया इतना कह कर दरवाज़ा बंद करके के लिए आगे बढे।

"विजय, ज़रा यहाँ आओ।" दादा जी ने भईया को अपने पास बुलाया।

भईया जाकर दादा जी के पास पलंग पर बैठ गए। दादा जी ने अभी घटी हुयी वो घटना भईया को बताई और उन्हें वहां लेटने ने से मना करने लगे। भईया को अचम्भा तो हुआ। मगर भईया ने सोचा शायद दादा जी को वहम हुआ हो। उन्होंने दादा जी को समझाया की दरवाज़े की कुण्डी तो उन्होंने अभी खोली है फिर कोई पहले से अन्दर कैसे जा सकता है। फिर एक दो तर्क पश्चात भईया ने दादा जी को रजाई ओढ़ा दी और दुसरे कमरे में चले गए सोने के लिए। दादा जी की आँखों से नींद कोसो दूर थी, उनकी समझ में नहीं आ रहा था की कल जो बंद आँखों से देखा वो वहम था या जो आज खुली आँखों से देखा वो। वहम क्या है और सच्चाई क्या? बस इन घटनाओ के बारे में सोच सोच कर वो रात गुज़ारने लगे।


रात के करीब डेढ़ बज रहे थे, दादा जी को नींद ने खुद से दूर रखा हुआ था। वो बस चुप चाप कमरे में रजाई ओढ़ कर खुले दरवाज़े से बाहर झाँक रहे थे। कमरे में अँधेरा था, बाहर एक बल्ब जल रहा था जिसकी रौशनी में वो बाहर देख रहे थे। वो किसी ध्यान में खोये हुए थे की उनका ध्यान किसी आवाज़ ने तोडा जेसे की किसी के चप्पल पहन कर चलने की आवाज़। उन्होंने ध्यान से आवाज़ को सुना तो वो आवाज़ भईया के कमरे से आ रही थी, दादा जी ने सोचा भईया को शायद प्यास वगेरह लगी होगी।

आवाज़ के शांत होते ही उनका ध्यान फिर भईया पर से हट कर अपनी ही विचारधारा में खो गया। २ बजने वाले थे, उन्हें हलकी हलकी सी नींद आने लगी। वो एक झपकी ले चुके थे की उनकी आंख अचानक खुली और उन्होंने साफ़ साफ़ देखा की एक औरत जिसने गरारा कुरता सा पहना हुआ था और जिसका चेहरा और हाथ वगेरह एक दम काले से थे, वो दादा जी के कमरे से ही निकली और कमरे के बगल से घर के अन्दर जाने वाली गली में चली गयी। दादा जी ने उसे दरवाज़े से निकलते और फिर कमरे की बंद शीशे की खिड़की से देखा की वो अन्दर घर में जा रही थी। दादा जी तुरंत उठ गए, उन्होंने सोचा इतनी रात को घर की तो कोई औरत इस कमरे में आयेगी नहीं तो फिर ये कौन है? दादा जी ने कमरे की बत्ती जलाई और फिर जिस तरफ से वो घर के अन्दर की तरफ गयी थी उसके पीछे चल दिए।

घर के अन्दर तक देख आये दादा जी मगर उन्हें वो काली औरत कहीं नज़र नहीं आई। दादा जी एक दम परेशान हो गये की ये कौन थी? और अन्दर आई तो गयी कहाँ? दादा जी ने सोचा की सुबह घर में सबसे पूछा जायेगा और अगर ये किसी घर के सदस्य की हरकत हुयी तो अच्छे से खबर ली जाएगी। फिर दादा जी वापस आकर उसी कमरे में बत्ती बंद करके लेट गये। फिर सोचने लगी की इसी वेश-भूषा घर में तो कोई नहीं रखता और न ही घर में कोई इतना काला है। दादा जी का मन इस बात को मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था की ये कोई भूत प्रेत हो सकता है, वो मन में ही खुद को तर्क देते और भूतप्रेत के ऐसे साक्षात् दिखने को झुठला देते।

वो इसे ही ख्यालो में खुद से सवाल जवाब करते हुए लेटे हुए थे के उन्होंने खिड़की से देखा की वो औरत गली में वापस आ रही है फिर चलते हुए उसी कमरे के दरवाज़े पर आई एक पल को रुकी और फिर कमरे के अन्दर आ गयी। "कौन है?" दादा जी ने डांटते हुए पूछा और फिर दादा जी ने बिना देर किये सिराहने लगे स्विच से बड़ी लाइट जला दी और फिर जो देखा उसकी वजह से हड़बड़ा गए। पूरे कमरे में कहीं भी कोई नहीं था। दादा जी तुरंत बिस्तर से उठ गए, वो पूरी तसल्ली करना चाहते थे। उन्होंने कमरे में मौजूद सोफे के नीचे, पलंग के नीचे और अलमारी में सब जगह देख डाला मगर उन्हें न तो वो औरत दिखाई दी और न ही उससे सम्बंधित कोई सुराग।
पूरी तरह से देखने के बाद, दादा जी चिंता में डूबे हुए वहीँ अपने बिस्तर पर बैठ गए। और सोचने लगे की ये क्या हो रहा है? किस मुहूर्त में ये भूत बंगला खरीद लिया। अब क्या किया जाये? कुछ समझ नहीं आ रहा था। वो बिस्तर में रजाई ओढ़ कर पलंग के सिराहने से पीठ टिका कर बैठे थे।

उस वक़्त समय यही कोई पौने तीन बज रहे होंगे। तभी बगल वाले कमरे का दरवाज़ा खुला। दादा जी ने इस बार कुछ भी देखने से पहले ही भईया को आवाज़ दे डाली। भईया ने जवाब दिया तो दादा जी को थोड़ी तसल्ली हुयी। भईया दादा जी के कमरे आ गए और दादा जी के पास बैठ गए और उनके जागने की वजह पूछी। मगर दादा जी बात को टाल गए और भईया से उल्टा इतनी रात को जागने का कारण पूछा।

भईया ने बताया की जरुर उस कमरे में कोई बात है। जैसा सपना दादा जी को आया था बिलकुल वैसा ही सपना उन्हें भी आया वो भी तीन बार। वैसी ही वेशभूषा वाला बलिष्ठ और लम्बा सा आदमी हाथ में फरसा लेकर आया और दो बार तो उन्होंने देखा की उसने सीधा भईया की गर्दन पर वार किया। जिससे भईया की नींद टूट जाती। लेकिन वो फिर भी सोये वो देखना चाहते थे की क्या सकता है वो। जब वो तीसरी बार सोये तो उन्होंने देखा की वो आदमी उनकी पलंग के बगल में खड़ा है और कह रहा है की "जहाँ पर तुम इस वक़्त लेटे हो ये मेरी जगह है। मुझे मजबूर मत करो की मैं तुम्हे कोई नुक्सान पहुँचाऊ। बस इतनी जगह पर कभी कोई न लेटे, इस जगह को छोड़ दो। यहाँ जो भी रखोगे बढेगा मगर कभी किसी यहाँ लेटाना मत। ये मेरी आखिरी चेतवानी है वरना जो यहाँ लेटा वो उठेगा नहीं।"

इतना कह कर उसने सपने में ही भईया को इतनी जोर से लात मारा की भईया सच में पलंग से नीचे आ गिरे। और फिर उसके बाद उठकर बाहर दादा जी के पास आ गये।

दादा जी ने भईया की पूरी बात सुनी और फिर भईया से कहा "उसकी जो मर्जी थी उसने बता दिया। जरुर वहां कुछ न कुछ तो है, अब क्या किया जाये? ये कमरा बंद कर दिया जाए या फिर कोई रास्ता है?"

"दादा जी, अगर उसे पूरे कमरे की जगह चाहिए होती तो वो जिस दिन हम यहाँ आये थे उसी वक़्त बता देता या फिर अब तक कोई एस नुक्सान कर देता की हम चले गए होते।" भईया ने जवाब दिया।

"मतलब, जहाँ अब पलंग है वो नहीं चाहता की वहां कोई लेटे। एक काम करो कल मिलकर वो पलंग वापस उसी जगह लगा दो जहाँ थी और उसकी जगह पर घर के राशन का भण्डारण करते हैं। उसके मुताबिक जो रखा जायेगा वो बढेगा, तो ये हमारे लिए अच्छा ही होगा। और इस कमरे में कभी मेरे सिवा कोई नहीं लेटेगा। अगर हम किसी तांत्रिक वगेरह को बुलाते हैं तो शायद वो नाराज़ हो जाये, जो की नुकसान दायक हो सकता है। इसलिए फ़िलहाल यही करते हैं। ठीक है?" दादा जी ने भईया से कहा।

भईया ने हाँ में हाँ मिलायी। और फिर दादा जे ने ये बात घर में किसी को भी बताने से मना कर दी।

फिर दादा जी ने कहा की "बेटा, शायद तांत्रिक को बुलाना जरुरी है। क्योकि मैंने इस कमरे में किसी और को देखा।"

ये सुन भईया के होश उड़ गए। ये क्या होने लगा था घर में? एक बात सुलझी भी नहीं थी ठीक से के दूसरी मुसीबत आन पड़ी थी। भईया ने पूछा की क्या देखा था?

दादा जी ने एक दम से पूरा घटना क्रम भईया को सुना दिया। भईया को एक और झटका लगा। फिर भईया ने धीरे से दादा जी की रजाई में पैर डाल कर बैठते हुए दादा जी का हाथ पकड़ कर कहा "दादा जी, मुझे लगा शायद धोखा होगा मगर आपसे पहले भी उस औरत को किसी ने देखा है अपने घर में।"

अब झटका लगने की बारी दादा जी की थी, वो एकदम हक्के बक्के होकर भईया का मुह देखने लगे और फिर पूछा "किसने देखा है उसे? और फिर मुझे बताया क्यों नहीं?"

"मम्मी ने एक दिन कहा था की वो एक बार रात में उठी थीं तो उन्होंने किसी काली सी औरत को गली में जाते हुए देखा था उसके पीछे भी आयीं मगर वो यहाँ दिखी नही। इसलिए मम्मी किसी को भी रात में उठने से मना करती हैं। मुझे तो भ्रम लगा मगर वो इस बात के लिए काफी सख्त थीं।" भईया ने बताया।

दादा जी ने ये बात सुनकर थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गए। मन्नी चाचा की उन्हें याद तो आई मगर वो कानपुर में नहीं थे और हॉस्पिटल भी छोड़ चुके थे। फिर उन्होंने भईया से कहा के "तुम्हारे पिता जी से कुछ कहना तो बेकार ही होगा, तुम एक काम करो किसी कारीगर की तलाश करो जिसका काम अचूक हो।"

भईया ने दादा जी बात में सहमति जताई और अगले दिन ऐसे किसी इंसान को ढूंढने के लिए राज़ी हो गए। फिर उन्होंने बातों ही बातों में रात गुजारी। और अगले दिन तलाश शुरू कर दी, ये बात घर में सबको बताई गयी। दादा जी के कमरे का पलंग पहले जिस जगह पर था वहीँ रखवा दिया गया और उन्हें दुबारा वो सपना भी नहीं आया।

करीब एक हफ्ते के बाद उन्हें एक औरत का पता चला जो की कल्याण पुर के पास कहीं पर चौकी लगाती थी। उसके पास जाकर भईया ने अपने घर की सारी समस्या और सपने के बारे में बताया। उस औरत ने कुछ चावल और एक बोतल में पानी दिया और कहा की रात को ये चावल घर में हर जगह हर कमरे में थोडा थोडा डाल देना और सुबह झाड़ू के साथ इसको भी बहार फेक देना और उसके बाद ये जल घर में छिड़क देना इससे जो भी सहबला होगी वो चली जाएगी। इस काम के उसने भईया से आठ सौ रूपए लिए।
भईया ने घर आकर जैसा उसने कहा था वेसा ही किया। सारे कमरों में चावल के दाने छिड़क दिए, दादा जी के कमरे पर उस जगह पर भईया ने विशेष तौर पर वो चावल के दाने डाले और सब अपनी अपनी जगह पर जाकर सो गए।

दादा जी को उस दिन कोई सपना नहीं आया मगर मौसी ने सपना देखा की वही औरत बाहर की तरफ से अन्दर को आ रही है और जमीं पर जो चावल पड़ा है उसे अपने पैरो से किनारे करती जा रही है एस करते करते वो पीछे की तरफ चली गयी और फिर वापस आई और मौसी को एक नज़र देख कर वापस आगे वाले कमरे में चली गयी।

सुबह उठते ही मौसी जी ने तुरंत उस रस्ते का जायजा लिया जिधर से वो काली औरत गुजरी थी। मगर शुक्र था की चावल जेसे डाले गए थे वेसे के वैसे ही पड़े थे वरना ये एक तरह का डरावना अनुभव हो जाता। उधर अपने कमरे में दादा जी ने उठ कर उस जगह पड़े चावल को देखा जहाँ उस लम्बे चौड़े आदमी ने किसी को भी लेटने से मना किया था। वहां भी चावल वेसे ही पड़े थे। मौसी जी ने नाश्ते के वक़्त सबको अपने सपने के बारे में बताया। मौसा जी ने उनकी बातों को वहम का नाम देकर टाल दिया मगर दादा जी ने ये बात साफ़ कर दी की चावल का कोई असर नहीं हुआ है उनपर। अब वो जल छिड़का जाए या नहीं उसका कोई फायदा नहीं होगा। मगर अपने मन की तसल्ली के लिए भईया ने वो जल पुरे घर में छिड़क दिया।

भईया अगले दिन फिर से उस औरत के पास पहुचे। इस बार उसने भईया को कुछ सामग्री लिख कर दी। जिसे लाने में भईया के पसीने छुट गए मगर एक दो के सिवा बाकी का कोई सामान नहीं मिला। भईया दुबारा उसके पास गए और सामान न मिलने की बात कही। इस पर उसने भईया से २ हजार रूपए ले लिए और खुद ही सामान का बंदोबस्त करने की बात कहकर भईया को वापस घर भेज दिया। जो सामग्री उस औरत ने लिखवाई थी उससे वो घर में ही कोई क्रिया करने की बात कर रही थी। खैर भईया उसे पैसे दे आये और अगले दिन घर पर आने का वक़्त उसने भईया को बता दिया।

अगले दिन वो दो आदमियों के साथ भईया के घर पर पहुंची। उन आदमियों मे से एक उसका पति था और दूसरा कोई रिश्तेदार का लड़का था। भईया ने उन्हें आगे वाले उसी मेहमानों के कमरे में बैठाया, उन्होंने घर पर पहुँच कर पहले चाय नाश्ता किया। उसके बाद भईया से पूछा "हमे वो कमरे दिखाओ जिस जिस में परेशानी है।"

"एक तो यही है जिसमे हम बैठे हैं और दूसरा बगल वाला है।" भईया ने बताया। ये सुनकर वो औरत कमरे को गौर से देखने लगी मगर उनके साथ आये उन दोनों व्यक्तियों के चेहरे का रंग फीका पड़ गया था। फिर उस औरत ने कहा "कोई बात नहीं सब ठीक हो जायेगा। एक तसले और कुछ लकड़ियों का इन्तेजाम करो।"

भईया ने इंतजाम कर दिया और उसने तसले में आग जलाई और न जाने कौन कौन सी जड़ों के नाम बताते हुए कहने लगी की "ये यहाँ नहीं मिलती इसी के पैसे लिए थे तुमसे।" उसके बाद उस आग में न जाने कौन कौन से मंत्र पढ़ कर सामग्री डालने लगी। काफी देर तक यही काम किया उसने फिर उसके बाद। खड़े होकर कुछ मंत्र पढ़े और आग में आहुति देने लगी साथ में वो दोनों व्यक्ति भी आहुति दे रहे थे।

करीब आधे घंटे बाद उसने उन दोनों से कहा की "ये तसला उठा कर इस कमरे में और फिर बगल के कमरे में और फिर पूरे घर में घुमा दो।"
मेहमानों वाले कमरे में तसले को दो तरफ से पकड़ कर दोनों ने पूरे कमरे में घुमाया उसके बाद वो तलसा उठा कर दादा जी वाले कमरे में ले गए। और हर कोने में दिखाने लगे, भईया और वो औरत साथ में थे और दरवाज़े पास खड़े होकर उन दोनों को देख रहे थे। जेसे ही वो लोग तसला घुमाते हुए कमरे के बीचो बीच पहुंचे, दोनों के हाथ से तलसा छूट गया। और आग नीचे फ़ैल गयी और कुछ अंगारे छिटक कर दोनों के पैर पर आ गिरे। जिससे दोनों चिल्ला कर उछल पड़े और कमरे से बाहर आकर पास में जग में रखे पानी को अपने पैर पर डाल लिया।

भईया और उस औरत का ध्यान भी उन दोनों की जली टांग पर था अन्दर फैली उस आग को किसी ने नहीं देखा। क्योकि उसके आस पास कोई जलने का सामान नहीं था। जब वो दोनों कुछ शांत हुए तो भईया ने अन्दर जाकर वहां फैली आग को देखा। आग पूरी तरह से बुझ चुकी थी जेसे की किसी ने पानी डाल कर बुझाई हो बस थोड़ी थोड़ी गर्मी फर्श पर महसूस हो रही थी।

फिर वो औरत भी अन्दर आई। और कहा की "इस कमरे में जिस किसी का भी वास है उससे टक्कर लेना ठीक नहीं है। इसलिए जो परहेज तुम लोग कर रहे हो वो करो तुम्हे कोई नुक्सान नहीं होगा।"

"वो तो ठीक है। लेकिन वो औरत जो बगल के कमरे में दिखती थी?" भईया ने पूछा।

"उससे डरने की जरुरत नहीं। वो तो मेरे आते ही भाग गयी। अब कभी परेशान नहीं करेगी।" उस औरत ने उत्तर दिया।

"अब चलते हैं, दोनों कमरों को धुलवा देना।" इतना कह कर वो चलने के लिए तैयार हुयी। भईया ने एक टेम्पो बुलवा दिया जिसमे उन
दोनों व्यक्तियों को चढ़ाया और फिर वो लोग चले गए।

अन्दर सब इसी इंतज़ार में बैठे थे की भईया कब आएंगे और क्या खबर लायेंगे?

भईया ने जाकर सबका इंतजार ख़त्म किया और सारी घटना बताई। पहले तो सबको दादा जी के कमरे वाली और दोनों चोट लगने की बात से थोड़ी चिंता हुयी मगर फिर सब ने समझौता कर लिया। सोचा की जो भी कोई नुक्सान तो कर नहीं रहा है, और उसने साफ़ साफ़ कह भी दिया था की यहाँ बस कोई लेटे ना बाकी कुछ भी रख लो। तो फिर वहां कुछ रख ही लिया जायेगा जिसके बढ़ने से घर का फायेदा हो। इस बात से सबको संतुष्टि हुयी की वो भयानक काली औरत अब वहां नहीं है। और जो सबके मन में घर बदलने का ख्याल जन्म ले रहा था उसका अंत हो गया।

मगर कोई नहीं जनता था की उस औरत ने वहां क्या किया और उसका क्या प्रभाव हुआ है।

एक दो दिन तक तो सब कुछ सामान्य रहा मगर तीसरे दिन की रात की बात है। मौसी जी को रात में वो औरत फिर से दिखाई दी वो भी कई बार, कभी कमरों में झांकते हुए तो कभी चेहेल कदमी करते हुए । वो रात में उठी थी तो उन्होंने उसे वहीँ मेहमानों वाले कमरे में जाते देखा। अगले दिन ये बात उन्होने भईया को बताई और भईया ने दादा जी को। इस बार दादा जी ने मन्नी चाचा से मिलने का फैसला कर लिया। वो जानते थे की वो उस वक़्त कानपुर में नहीं थे मगर उन्होंने उनके घर जाकर पता लगाना चाहा की वो कहाँ हैं ताकि उन्हें वहां से बुलवा लिया जाए।

दादा जी उसी दिन शाम के वक़्त मन्नी चाचा के घर पहुंचे। वहां उन्हें मन्नी चाचा का सहायक मिला। जिसका असली नाम तो कुछ और ही था मगर वहां उसे सब साधू कहा करते थे, उनकी उम्र उस वक़्त कोई ४५ साल के आस पास रही होगी। उनकी तंत्र मंत्र में रूचि तो थी मगर कुछ शारीरिक कष्ट के कारण वो मन्नी चाचा जेसा दर्जा नहीं रखते थे। मगर उनके पास जिनती जानकारी थी वो उसी में खुश रहते थे। दादा जी ने साधू से पहुँच कर कर मन्नी चाचा के बारे में पूछा। वो उस वक़्त नासिक में थे वहां से वो उज्जैन जाने वाले थे जिससे उनका ३ हफ्ते तक आना बिलकुल अनिश्चित था। दादा जी ने साधू ने परेशानी पूछी तो दादा जी ने उन्हें सब कुछ बता दिया।

साधू जी ने दादा जी को बताया की वो ज्यादा बड़ी शक्तियों से तो निपट नहीं सकते मगर छोटे मोटे को तो लपेट ही सकते हैं। इस बात पर दादा जी ने उनसे घर आने का आग्रह किया, बात काफी विचित्र थी और मन्नी चाचा के अच्छे दोस्त होने की वजह से उन्होंने घर आना स्वीकार कर लिया। उन्होंने अगले दिन घर आने के लिए कह दिया।

दुसरे दिन साधू जी दादा जी के घर करीब ग्यारह बजे पहुँच गए, कई सारी तंत्र मालाएं पहनी हुयी थी उन्होंने। पहले अन्दर के कमरे में चाय पानी के साथ इधर उधर की बातें की उसके बाद दादा जी से कहा की मुझे दोनों कमरे दिखाईये मगर कोई और ना आये हमारे सिवा। दादा जी उन्हें ले गए और उन्होंने साधू जी को पहले अपना कमरा दिखाया। वहां पहुच कर साधू जी ने पहले कुछ मंत्र बुदबुदाया और फिर उसके बाद इधर उधर कमरे देखने लगे। देखते देखते वो आगे बढे और वहीँ पहुँच कर रुक गए जहाँ दादा जी का पलंग लगाने पर उन्हें सपने आने लगे थे। उन्होंने वहां कुछ गौर से देखा और फिर हाथ जोड़ कर वहीँ पर बैठ गए। कुछ देर बैठने के बाद वहां से उठ गए और कमरे से बाहर आ गए।

बाहर आकर उन्होंने दादा जी से कहा की "जेसा चल रहा है चलने दो, वहां कोई भी चीज़ रखोगे वो बढ़ेगी। वहां जिसका वास है उससे जीत पाना तो मेरे क्या मन्नी जेसे अघोरी के बस के बाहर है। और उसे गुस्सा दिलाने से कुछ नहीं होगा। इस कमरे में हमेशा इसी तरह अचे से साफ़ सफाई रखना और भूल से भी उस जगह किसी को लेटने मत देना, वरना चेतावनी तो तुम्हे मिल ही चुकी है।"

दादा जी ने उनकी बात पर सहमति जताई। और फिर वो लोग बढ़ गए दुसरे कमरे की तरफ।

उस कमरे को दादा जी ने खोला और दादा जी से पहले साधू जी अन्दर चले गए। और उन्होंने दादा जी को बाहर ही रोक दिया। अन्दर जाकर उन्होने अपने मुंह और नाक पर कपडा रख लिया जेसे की उन्हें बदबू आ रही हो। कुछ देर अन्दर कमरे में रुके उसके बाद फिर बाहर आ गए।

"उन्होंने कहा यहाँ पर तो काफी बड़ी मुसीबत है बेहतर होगा की आप उससे बात कर लें।" साधू जी ने दादा जी से कहा।

"लेकिन में कैसे बात कर सकता हूँ? मैं तो कोई तांत्रिक या कारीगर नहीं।" दादा जी ने परेशान होकर कहा।

साधू जी दुबारा अन्दर देखने लगे। जेसे किसी को ध्यान से सुन रहे हो। उसके बाद दादा जी बोले "नहीं, तुमसे नहीं वो किसी औरत से ही बात करेगी।"

"क्या ये जरुरी हैं?" दादा जी ने पूछा।

"हाँ, पहले नहीं था मगर मुझसे पहले जो यहाँ औरत आई थी उसकी वजह से ये जरुरी हो गया है।" साधू जी ने कहा।
दादा जी उनकी बात ध्यान से सुन रहे थे। फिर दादा जी ने कहा की "वो तो ठहरी एक आत्मा उससे बात करने की हिम्मत कौन करेगा? अगर उसने कुछ नुक्सान पहुँचाया तो?"

"तुम्हारी बहु(मेरी मौसी जी), वो उन्हें कई बार दिखी है। अगर वो बात करने को राज़ी हो गयीं तो ये समस्या सुलझ सकती है। मगर ध्यान रहे ये यहाँ से नही जाएगी लेकिन बात करके हल जरुर निकल जा सकता है।" साधू जी ने ऐसा कहते कहते अपने गले से एक माला निकाली और दादा जी को देते हुए कहा "ये माला बहु से कहना पहन कर रात को जिस वक़्त वो दिखाई दे, उसके पीछे यहाँ इस कमरे तक आ जाये। फिर उससे बात कर ले। मगर उसके सिवा और कोई न हो। जब तक ये माला उसके गले में हैं। उसका कोई कुछ नहीं बिगड़ सकता।" उन्होंने दादा जी बात समझा दी।

"लेकिन पता नहीं बहु मानेगी या नहीं..." दादा जी कह ही रहे थे की साधू जी ने बात बीच में काट दी और बोले
"बिलकुल मानेगी। वो जब उसे देख कर डरी नहीं तो फिर इस काम में भी नहीं डरेगी और फिर ये समस्या का समाधान ही है। उसके सिवा तुम्हारे घर की कोई भी स्त्री ये काम नहीं कर पायेगी।"

दादा जी की बात समझ में आ गयी मगर मन में शंका और चिंता दोनों ने घर बना लिया था। उसके बाद दादा जी साधू को वहीँ छोड़ कर मौसी जी के पास गए और उनसे ये सारी बात की। मौसी जी ने इस बात को स्वीकार कर लिया और माला ले ली।
बाहर जाकर दादा जी ने साधू जी को विदा किया और अगले दिन माला वापस उन्ही के पास पहुँचाने की बात कही। घर में ये बात और किसी को नहीं बताई गयी थी और रात को सबको सख्त हिदायत दी गयी की चाहे कोई भी बुलाये या कुछ भी आवाज़ आये कोई भी अपने कमरे से बाहर नहीं निकलेगा।

मौसी जी रात को उस वक़्त के इंतज़ार में थे की कब वो दिखाई देगी। ये सोचते सोचते उन्हें नींद आ गयी। रात के करीब पौने दो बजे का वक़्त था उनकी नींद थोड़ी सी खुली उन्होंने वक़्त देखा और फिर पास रखी बोतल से पानी पिया। उसके बाद लेट कर खिड़की से बाहर गली में देखने लगी। अचानक उन्हें गलियारे में कोई परछाई सी दिखाई दी। उन्होंने तुरंत माला उठाया और पहन लिया। और कमल गट्टे की उस माला को हाथ से पकड़ कर दबे पाँव, धीरे धीरे बाहर की तरफ मेहमानों वाले कमरे में जाने लगी। दुसरे वाले कमरे का दरवाज़ा खुला था। मौसी जी ने देखा की दादा जी भी जाग रहे थे, उन्हें देख कर मौसी जी को थोड़ी राहत महसूस हुयी और उन्होंने माला से अपना हाथ हटा लिया और उस कमरे में चली गयीं।

आगे मौसी जी ने बताया था की जब वो उस कमरे में गयीं तो उन्होंने देखा की एक जली हुयी सी औरत उस कमरे की फर्श पर लेटी हुयी थी, खाल जल कर लटकी हुयी थी और हल्का हल्का खून बह रहा था उसके पूरे जिस्म से। मौसी को देखते ही वो उठ कर बैठ गयी। मौसी जी को ये सब कुछ सपने की तरह लग रहा था। उस कमरे में मांस जलने की बदबू भरी पड़ी थी।

"कौन हो तुम?" मौसी ने पूछा।

"नाज़।" उसने जवाब दिया। उसके लहजे से ही मौसी को लगा की वो गुस्से में है।

"यहाँ क्या कर रही हो?" मौसी ने पूछा।

"इंतज़ार।" उसने जवाब दिया।

"किसका?" मौसी ने पूछा।

"इंतजार-ए -इंतकाम।" उसने थोडा गुर्रा के कहा। मौसी जी को थोडा डर महसूस हुआ और उनका हाथ माला पर चला गया।

"कैसा इंतकाम?" मौसी ने डरते हुए पूछा।

"उन चारों से।" उसने जवाब दिया। मौसी और डर गयीं उनके भी चार बेटे है। कहीं वो इनसे तो कुछ नहीं चाहती।

"कौन चार?" मौसी ने पूछा।

"जिन्होंने मेरी ये हालत की है।" अब उसने थोडा दुखी होकर कहा।

"किसने की तुम्हारी ये हालत?" मौसी ने पूछा।

"वो चार हैवान। मुझे मेरे घर से उठा लाये। मेरी आबरू को तार तार कर दिया, और उसके बाद मुझे जला कर यूँ ही आजतक जलता हुआ छोड़ दिया।" उसकी आवाज़ से लगा की वो रो रही है मगर मौसी जी को उसके जले चेहरे पर कोई आंसू नहीं दिखे मगर उसे देख कर दुःख जरुर हुआ।

"बहुत बुरा हुआ तुम्हारे साथ। वो लोग अब कहाँ हैं?" मौसी ने पूछा।

"बगल वाला कहता है, वो लोग कुछ साल बाद आएंगे। दुबारा पैदा होकर। तभी में उनसे इंतकाम लुंगी। मैं बहुत चिल्लाई थी मगर उन्होंने मेरी एक न सुनी थी, अब वो चिल्लायेंगे और सबको अपने कान बंद रखने होंगे।" उसने कहा और रोने लगी।

मौसी को उस पर बहुत दया आ रही थी, उन्होंने अपना हाथ भी माला से हटा लिया था। "बगल वाले" से उसका आशय मौसी जी समझ गयी थी।

"बगल वाले ने तुम्हे बचाया नहीं?" मौसी ने पूछा।

"उस वक़्त वो यहाँ नहीं थे, वरना उनकी इतनी जुर्रत न होती। बाद में वो आये, उन्होंने रहम करके मुझे यहाँ पनाह दी है। वो ही मेरे अब तक मददगार रहे हैं। वही इंतकाम में भी मेरी मदद करेंगे।" उसने जवाब दिया।

"तुम कहाँ से हो? तुम्हारा घर कहाँ था?" मौसी ने पूछा।

"अब मुझे कुछ याद नहीं, बस उनकी शक्ल याद है। उनकी रूह तक को पहचान लुंगी मैं।" उसने फिर से गुस्सा सा दिखाया। मगर मौसी उससे फिर भी सहज रूप से बात कर रही थी।

"तुम्हारे साथ इतनी बेरहमी हुयी किसी ने देखा नहीं? या बचाया नहीं?" मौसी ने पूछा।

"उस वक़्त यहाँ इंसान का बसेरा नहीं था, ये जगह विराना था।" उसने बताया। मौसी को अचनाक अपने परिवार की याद आई और वो उसकी बातों और भावनाओ से बाहर आयीं।

"तुम्हे देख कर मेरे परिवार को डर लगता है। तुम यहाँ वहां क्यों डराती हो सबको?" मौसी ने पूछा।

"वो मेरे निकलने का वक़्त है। अफताब (सूरज) की रौशनी में इंसान निकलते हैं। मैं तुम्हारे वक़्त में नहीं निकलती तो तुम मेरे वक़्त में क्यों निकलती हो। निकलोगी तो सामना होगा ही।" उसने अपनी बात रखी जिसकी कोई काट नहीं थी।

"मेरे परिवार पर दया करो। उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?" मौसी ने हाथ जोड़ कर उससे कहा।

"मैंने भी तो तुम्हारे परिवार का कुछ नहीं बिगाड़ा। वो (औरत) आई थी मुझे जलाने बस उसका बिगाड़ा हैं। वो भूल गयी की जली हुयी दुबारा नहीं जलेगी। और तुम बस मेरे वक़्त में मत निकालो वरना मुझे यहीं पाओगी। और मुझे तो बस उन चारो का ही बिगाड़ना है वो भी सब कुछ।" वो फिर अपनी ही बात में मौसी को ले जाने लगी।

"कब तक यहाँ ऐसे ही भटकोगी? क्या करोगी यहाँ सालों भटककर?" मौसी ने पूछा।

उसने नीचे फर्श की और सर कर लिया और कहा "इंतजार -ए-इंतकाम"।

इतना कह कर वो धीरे धीरे धुंधली हो गयी और फिर गायब हो गयी। वहां फैली वो जलने की बदबू भी समाप्त हो गयी।

बाहर निकल कर मौसी ने देखा तो दादा जी भी सो गए थे। उसके बाद मौसी बताती हैं की उन्हें कुछ याद नहीं की वो अपने कमरे तक कैसे पहुंची?

सुबह उठ कर उन्होंने देखा तो वो माला वहीँ टंगी थी जहाँ उन्होंने रात को सोने से पहले टांगा था। और दादा जी पूछा तो उन्होंने कहा की वो तो रात भर सोये उन्होंने देखा तक नहीं की मौसी कब उस कमरे में गयी थी। पानी की बोतल में पानी भी उतना ही था। वो सिर्फ एक सपना था जो मौसी ने देखा था।

अगले दिन दादा जी के जाने से पहले साधू जी खुद आ गए। उन्होंने सारी घटना सुनी और कहा "इसी मुलाकातें इसी तरह अक्सर होती हैं ताकि तुम्हे डर न लगे। और उसने सही कहा था, अगर कोई आत्मा तुम्हारे समय में बाहर नहीं निकलती तो तुम भी उनके समय में बाहर मत निकलो। दिन इंसानों के लिए हैं और रात आत्माओ के लिए।"

लेकिन नाज़ पर दया करके उन्होंने फिर कभी किसी तांत्रिक से उसे नुक्सान नहीं पहुंचवाया। और करीब एक साल बाद वो घर बदल दिया। तब तक उन्होंने सख्त परहेज रखा रात को उठने और उससे सामना होने से।

धन्यवाद।

मेडिकल कॉलेज का बरगद का पेड़

नमस्कार दोस्तों,
दोस्तों हर किसी के जीवन में कोई न कोई एक ऐसी घटना जरुर होती है जिसे वो अपने जीवन में सबसे बुरा समय मानता है। लेकिन किसी न किसी रूप में कोई न कोई हमेशा उन परिस्थितियों में मदद के लिए पहुँच जाता है।

मैं आज आप लोगों के सामने एक ऐसी ही घटना का उल्लेख करने जा रहा हूँ। ये घटना मेरी मौसी के बेटे जिनका नाम अजय है उनके साथ घटी थी। वो मेरे बड़े भाई हैं और ये घटना भी काफी पहले की है जब वो करीब आठ साल के रहे होंगे। तब मौसी कानपूर मेडिकल कॉलेज के पास हेलेट में रहती थीं। भईया के दादा जी काफी जाने माने इन्सान थे वहां की अच्छी खासी हस्तियों में उनका नाम था। आज़ाद मैगज़ीन कार्नर के नाम से उनकी किताबो की अच्छी खासी दुकान थी और न्यूज़ पेपर के कानपुर में सबसे बड़े हॉकर थे। उनका नाम कुछ और ही था मगर वहां सब उन्हें आज़ाद के नाम से जानते थे।

आज़ाद के नाम से प्रसिद्ध वो व्यक्ति, अपनेपन, उदारता और सोम्य व्यवहार की परिभाषा थे। मैं भी उन्हें दादा जी ही कहता था और वो मुझे भी उतना ही प्यार करते थे जितना के अपने पोतों को करते थे। हेलेट में रहने के कारण वो लोग कानपुर मेडिकल कॉलेज के बहुत पास रहते थे। अजय भईया और उनके बड़े भाई अक्सर मेडिकल कॉलेज के पार्क और बगीचों में खेलने जाया करते थे। वहां के लोगो के साथ अच्छे व्यव्हार की वजह से उन्हें कभी कोई मना नहीं करता था।

रोज़ के जैसे ही दिन चल रहे थे दिवाली आने को थी और बच्चो की छुट्टियाँ चल रही थी। दोनों भईया उस दिन साइकिल से खेल रहे थे बड़े भईया ने अजय भईया को पीछे बैठा रखा था। और वो दोनों वहीँ मेडिकल कॉलेज से थोड़ी दूर पर ही साइकिल से घूम रहे थे। फिर घुमते हुए मेडिकल कॉलेज के पास आ गए। वहां पर बड़े भईया साइकिल से उतर गए और वहां के एक अंकल जो की पहचान के थे उनसे कुछ बात करने लगे। साइकिल खड़ी थी और उस पर पीछे की सीट पर अजय भईया अभी भी बैठे थे। अभी पांच मिनट ही हुए होंगे के अचानक अजय भईया साइकिल समेत निचे गिर पड़े। वो अंकल और बड़े भईया उनके पास आये उन्हें उठाया मगर वो बेहोश हो चुके थे। दोनों सोचा के शायद संतुलन खोने की वजह से गया और वो उन्हें उठाकर घर ले आये। घर आने पर मौसी जी उनके मुंह पर पानी वगेरह छिड़का मगर उन्हें कोई होश नहीं आ रहा था। अचानक उनकी सांसे उखड़ने सी लगी और वो लम्बी लम्बी सांसे लेने लगे।

अजय अजय! सब आस पास उन्हें उनके नाम से बुलाये जा रहे थे मगर उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आ रहा था और आंखें भी नहीं खुल रही थी। मेडिकल कॉलेज पास ही था इसलिए बिना देर किये वहां मौजूद सब लोग वो अंकल, मौसी और मौसा जी भी भईया को लेकर सीधा इमरजेंसी में पहुंचे। डॉक्टरों ने साडी पूछ ताछ की। और सबको बाहर करके जांच में लग गए। सर पर कोई चोट नहीं थी और न ही शरीर पर छोटी खरोंचो के सिवा कोई बड़ा ज़ख्म दिखा। सांसे फिर उसे उखड़ने सी लगी और डॉक्टर ने ऑक्सीजन देने के मास्क लगा दिया। सांसे फिर भी कोई ख़ास काबू में नहीं आई। थोड़ी थोड़ी देर में उखड़ने लगती और फिर जब प्रेशर बढाया जाता तो साधारण हो जाती। डॉक्टरों को बेहोशी की वजह का कोई पता नहीं चल रहा था। इसलिए उन्होंने इमरजेंसी एक्सरे करवाया वो भी नार्मल था बिलकुल भी कहीं से कोई खराबी नहीं दिखी।

वहां दूसरी तरफ एक आदमी दौड़ा दौड़ा गया और दादा जी से बोल दिया की "आज़ाद जी आपका पोता अस्पताल में है और बहुत सीरियस है।"

उन्होंने बिना किसी देर के दुकान में बिना ताला लगाये केवल शटर गिराया और सीधा मेडिकल कॉलेज पहुँच गए। वहां सब उन्हें जानते थे इसलिए उन्हें किसी से भी अपने पोते के बारे में पूछने की जरुरत नहीं पड़ी। डॉक्टर खुद आये और साड़ी परिस्थितियों से अवगत कराते हुए उन्हें भईया के पास ले गए। हालत काफी नाज़ुक बता कर ५ -७ डॉक्टर लगातार निगरानी में लगे थे। दिल की धड़कन मशीन में अपनी सीमा पर पहुचने लगी थी और मशीन की आवाज़ ने हालत बयां करनी शुरू कर दी थी। डॉक्टर ने सबको बाहर कर दिया अबतक मेरे मामा जी लोग भी वहां पहुँच चुके थे।

दादा जी रिसेप्शन के पास गए और अपने पहचान के डॉक्टरों को फ़ोन कर दिया। कुछ दस मिनट के बाद ही वहां पर ५ डॉक्टर और आ गए जो की उस मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर थे। दादा जी ने मिलकर उन्हें पहले सारी बात बताई। वो उन्होंने ने ध्यान से सुना और फिर बिना देर किये उस वार्ड की तरफ बढ़ गए जहाँ भईया को रखा गया था। उनके दरवाजा खोलने से पहले ही अन्दर से बाहर आ रहे डॉक्टर ने दरवाजा खोल और प्रोफेसर को देखते ही कहा की "सर कोई फ़ायदा नहीं है, लड़का मर चुका है।"

हलाकि ये बात उसने धीरे से कही लेकिन दादा जी ने ये बात सुन ली और घबरा कर तेज़ तेज़ से रोने लगे। बाकि डॉक्टर और प्रोफेसर ने उन्हें संभाला और फिर उनमे से एक प्रोफेसर जिन्हें सब प्रोफेसर त्यागी के नाम से जान्ते थे। उन्होंने खुद भईया को चेक करने को कहा और उनके साथ बाकि के ३ प्रोफेसर वार्ड में सहायक डॉक्टरों के साथ चले गए और बाहर एक प्रोफेसर अभी भी दादा जी के साथ थे और उन्हें समझा रहे थे के प्रोफेसर को जांच करने दो ईश्वर ने चाहा तो सब ठीक हो जायेगा। मौसी जी को तब तक मौसा जी और मामा जी ने घर भेज दिया था वरना न जाने उनकी क्या हालत होती?

अन्दर से आने वाली प्रोफेसर की आवाजें वहां मौजूद लोगो की सांसो को ऊपर नीचे होने पर मजबूर कर रहीं थीं।
"देखो धड़कन चली क्या?"
"ठीक से यहाँ दबाव बनाओ। अब बताओ।"
"पैरो को देखो हिलते हैं या नहीं?"
"जान है जान है। देखो थोडा हिल इसका हाथ।"
इस तरह के आवाजें लगातार सांसे ऊपर नीचे करती जा रही थी। फिर अचानक सरे प्रोफेसर शांत हो गए और करीब दस मिनट तक कोई आवाज़ नहीं आई। किसी उन्होनी की आशंका ने सारी उम्मीदों को पीछे छोड़ दिया था, तभी प्रोफेसर त्यागी बाहर आये और बताया की "बच्चे को कुछ नहीं हुआ है आज़ाद जी, बस प्रार्थना कीजिये की वो जल्दी ठीक हो जाए।"

इस बात से सबको राहत मिली थी मगर अभी भी प्रार्थना जारी थी। प्रोफेसर भी इस बात से बहुत परेशान थे के जब सारी रिपोर्ट और एक्सरे सामान्य हैं तो फिर इतनी सीरियस हालत की वजह क्या है? फ़िलहाल प्रोफेसर उनकी निगरानी में लगे हुए थे और आनन् फानन में कई एक्सरे दुबारा करवा लिए थे।

उन्होंने ये बात मामा जी और मौसा जी से भी कही के "हम अभी सिर्फ जो परेशानी आ रही है उसका इलाज कर रहे हैं मगर इस बेहोशी और इस हालत की जड़ हमे नहीं मिल रही। सब कुछ नार्मल है मगर पता नहीं क्या हुआ है और ऊपर वाले को क्या मंजूर है?"
अब सब कुछ ऊपर वाले पर ही छोड़ कर सब बैठ गए थे। घबराहट और बेचैनी ने दिमाग का चलना भी रोक दिया था। किसी की समझ में नहीं आ रहा था की क्या किया जाये और किसके पास जाएँ?

रात होने लगी थी मगर भूख प्यास से बेखबर दादा जी मौसा जी और मामा जी हॉस्पिटल में ही जमे हुए थे, मोबाइल का तब जमाना नहीं था इसलिए रिश्तेदारों में ये बात धीरे धीरे ही फ़ैल रही थी। रात गहराती जा रही थी घर से आया हुआ खाना जस का तस रखा था मगर किसी का खाने का मन नहीं हो रहा था। फिर दादा जी को घर भेज कर मामा जी और मौसा जी ही केवल हॉस्पिटल में रुके थे और ICU में भर्ती भईया की समय समय की खबर ले रहे थे। भईया की हालत वेसे ही बनी हुयी थी कोई होश नहीं था उन्हें।
रात के करीब एक बजे मामा जी सिगरेट पीने के लिए बाहर गए। वो सिगरेट पीते हुए टहल रहे थे और ये सोच रहे थे के न जाने क्या होने वाला है और क्या हो सकता है?

तभी पीछे से आवाज़ आई, "काका भईया नमस्कार।"
मामा जी ने पीछे मुड़कर देखा और बिना मुस्कुराये जवाब दिया "अरे मन्नी लाल, कैसे हो?"

"हम तो ठीक हैं, आप बताईये इतनी रात को और यहाँ कैसे?" उन्होंने मामा जी से पूछा।
मामा जी ने शुरू से आखिरी तक सारी बात बतायी।

"इतना कुछ हो गया हमे बताया भी नहीं, हम तो यही हैं ड्यूटी पर बस पीछे मुर्दा घर में।" उन्होंने मामा जी परेशानी समझते हुए कहा।

"क्या बताये भईया, सुबह से तो खाने पीने का भी होश नहीं है। घर पर दीदी भी बेहाल पड़ी हैं समझ नहीं आ रहा क्या हो रहा है क्या होगा?" मामा जी ने अपना हमदर्द समझ कर अपना सारा दुःख नम आँखों से उनके सामने रख दिया।

"भईया परेशान न हो, बस ३ घंटे और रुक जाओ सुबेरा होते ही बस हम अपना झोला ले आयें फिर देखते हैं कहीं कोई और बात तो नहीं है।" उन्होंने मामा जी से कहा।
"देखो भईया, जेसा बन पड़े करो। बस ये ठीक हो जाये।" मामा जी ने उनसे नाउम्मीदी से कहा।
उसके बाद थोडा इधर उधर की बात की और वापस आ कर मामा जी भी वहीँ ICU के बाहर बैठ गए।

जस के तस रह कर किसी तरह से दोनों ने वहीँ पर रात गुजार दी। रात भर भईया में कोई बदलाव न देखते हुए डॉक्टरों ने उन्हें ICU से अलग एक वार्ड में स्थानांतरित कर दिया।

सुबह दादा जी और मौसी जी भी आयीं और रोते बिलखते किसी तरह अपने बेटे को देखा और फिर मौसा जी के साथ घर चली गयीं। मामा जी ने दादा जी मन्नी लाल के बारे में बताया और उनकी इज़ाज़त मांगी। उन्होंने अपने बेटे के लिए जिस तंत्र मन्त्र पर कभी विश्वास नहीं करते थे, उसे भी इज़ाज़त देदी। शायद कोई चमत्कार हो जाये और अजय ठीक हो जाये।

मामा जी भी घर गए और जल्दी से जल्दी नहा धो कर वापस आ गए क्योकि उन्हें मन्नी लाल से जो मिलना था। खैर मन्नी लाल को आने में देर हुयी वो ६ बजे की बजाये साढ़े सात बजे आये मगर उनकी आने में देरी को लेकर किसी ने कोई आपत्ति नहीं जताई। मामा जी उनके इंतज़ार में थे और उनके आते ही सीधा उस वार्ड की तरफ बढ़ गए जहाँ भईया को डॉक्टरों ने रखा था।

मामा आराम से जाकर अन्दर दादा जी से बताने लगे की जिनके बारे में बताया था वो आ गए हैं। लेकिन ये क्या वो दरवाज़े के बाहर ही खड़े थे। मामा जी ने उन्हें अन्दर आने का इशारा किया मगर फिर भी वही खड़े रहे अन्दर आने की कोशिश करते और फिर से वहीँ खड़े हो जाते।
ये देख कर मामा जी को अजीब लगा और मामा जी ने जाकर उनसे पूछा "क्या हुआ भईया अन्दर क्यों नहीं आ रहे?"
"काका भईया हम बहुत कोशिश कर रहे हैं लेकिन ये लड़का जिसकी चपेट में है वो इतनी प्रबल शक्ति है के हम खुद को जिस विद्या से बांधे हैं उसके साथ हम इस कमरे में घुस ही नहीं सकते।" उन्होंने ने थोड़ी सी माथे पर चिंता की लकीरों को उभर कर कहा।

मामा जी इस बात से थोडा परेशान हुए और बोले "अब क्या करें भईया? अब कैसे क्या होगा?"


मामा जी इस बात से थोडा परेशान हुए और बोले "अब क्या करें भईया? अब कैसे क्या होगा?"

"थोडा समय दो अभी बतातें हैं क्या करना है और क्या होगा।" उन्होंने खुद पर विश्वास रखते हुए मामा जी से कहा और वार्ड के दरवाज़े पर ही बैठ गए। आने जाने वाले उन्हें देख रहे थे। फिर एक नर्स आयीं और उन्होंने उनके बाहर बैठे रहने का कारण पूछा। उन्होंने बिना झिझक के जवाब दिया "अन्दर आज़ाद साहब बैठे हैं न और हम नौकर आदमी उनके बराबर बैठे अच्छा नहीं लगता।" नर्स ने उन्हें वेसे ही रहने दिया और दुबारा नहीं टोका।

थोड़ी देर तक उन्होंने अपना कुछ धीरे धीरे मंत्र जाप किया और फिर वहीँ बैठे रहे। मामा जी ने उनके पास जाकर पूछा "भईया क्या हुआ कुछ हल नज़र आया?"

"भईया ये शक्ति बहुत विकट है, साढ़े बारह बजे तक अगर ये लड़का बच गया तो फिर ये नहीं मरेगा अपने बुढ़ापे तक। अभी इस शक्ति से हम टक्कर नहीं ले सकते, ये इसका वक़्त चल रहा है जिसमे ये बहुत ज्यादा ताकत वार है। ये हमको अन्दर नहीं घुसने दे रहा है न, हम भी इसे बाहर नहीं निकले देंगे। हम भी यहीं डेरा जमाये रहेंगे देखे कितने खेल दिखता है।" इतना कह कर वो फिर से अपने किसी मंत्र को शांति से पढने लगे। और मामा जी वापस जाकर बैठ गए।

समय दस बज रहे थे अब सबको इंतज़ार था तो सिर्फ साढ़े बारह बजे तक के समय के कटने का। सब अपने अपने तरीके से भगवन से प्रार्थना कर रहे थे। और मन्नी चाचा बाहर वेसे ही बैठे थे कभी अपने थैले से कुछ निकल कर मंत्र पढ़ते तो कभी कोई वस्तु मंत्र पढ़ कर अन्दर वार्ड में फेंक देते।

बेचैनी और बेबसी की वजह से वो ढाई घंटे किसी ढाई दशक जैसे लग रहे थे। दादा जी को डॉक्टरों पर यकीन था मगर मामा जी को मन्नी चाचा पर। क्योकि मामा जी ये बात मान चुके थे के जब डॉक्टर भी परेशान हो जाएँ और सारी रिपोर्ट भी नार्मल हो तो तंत्र मंत्र का सहारा भी बहुत बड़ा योगदान देता है।

बाहर बैठे हुए मन्नी चाचा की बेचैनी देखि जा सकती थी कोई भी ज्ञाता ये देख कर जान सकता था की वहां बैठे आदमी की बैचैनी किसी आम इंसान की बैचैनी से अलग थी। ये बात वहां काम करने वाली एक दक्षिण भारतीय नर्स जान गयीं। वो वार्ड में जाते वक़्त मन्नी चाचा से बोली "अंकल, तुम यहाँ तंत्र मंत्र कर रहा है न हम को ये सब पता हैं।"

"बेटा, अब जान गयी हो तो दुबारा यहाँ मत आना क्योकि कुछ शक्तियां अनजान को माफ़ कर देतीं है। लेकिन जानकार के लिए खतरा बढ़ जाता है।" मन्नी चाचा ने आराम से नर्स को समझाते हुए सच्चाई से अवगत कराया।

वो नर्स ये बात सुनकर डर गयी और दुबारा उस जगह दिखाई नहीं पड़ी। मामाजी और मन्नी चाचा पर मानसिक दबाव बनता जा रहा था एक चूक या लापरवाही अगर होती तो दो दो जाने जाती एक जो पहले से गिरफ्त में थी और दूसरी जो उससे टक्कर ले रही थी।

किसी तरह से तो बारह बजे तक का समय कट गया मौसी जी और मौसा जी खाना लेकर अस्पताल आ चुके थे। लेकिन अब जेसे जेसे उसका प्रबल समय ख़त्म हो रहा था उस शक्ति ने अपना खेल दिखाना शुरू कर दिया। भईया की सांसे ऊपर नीचे होने लगी ऑंखें पलट गयी, उनकी खुल आँखों में सिर्फ सफेदी नज़र आ रही थी आखों की पुतली दिखाई नहीं दे रही थी। हाथ पैर झटके खाने लगे थे। डॉक्टर को बुलाया गया जल्दी से जल्दी तीन चार डॉक्टर और प्रोफेसर अन्दर गए और बाकि सब को बाहर कर दिया गया।

डॉक्टर अपनी पूरी कोशिश में लगे थे और उधर मन्नी चाचा कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। उनके मंत्रोचारण लगातार चल रहे थे। मौसी जी को रो रो कर बुरा हाल हुआ जा रहा था। डॉक्टरों ने भईया के हाथ पैर पकडे हुए थे और एक डॉक्टर उनके सीने को लगता दबा रहा था अपना पूरा जोर लगा कर। तभी अचानक अन्दर से भईया के चिल्लाने की आवाज़ आई "मम्मी! मम्मी!"

ये सुन कर मौसी जी तुरंत वार्ड की तरफ दौड़ पड़ी। मगर मन्नी चाचा ने उन्हें अन्दर जाने से मना कर दिया। लेकिन पुरे चौबीस घंटे बाद भईया की आवाज़ आई थी इसलिए वो अन्दर जाने पर अमादा हो गयीं। मन्नी चाचा ने मामा जी से कह कर उन्हें वहीँ रोक दिए और समझाया के "अगर ये अन्दर चली गयीं, फिर ये लड़का तो बच जायेगा मगर हम इनको नहीं बचा पाएंगे। क्योंकि अन्दर से जो आवाज़ आ रही है वो छलावा है किसी और को अपना शिकार बनाने के लिए तुम्हारे परिवार से। तुम्हारा लड़का तो अभी भी बेहोश है।" मन्नी चाचा के लिए ये परीक्षा की घडी थी।

दूसरी तरफ डॉक्टरों को इस बात से थोड़ी सी आशा नज़र आई और वो अपने पूरे दिल जान से जो हो सकता था कर रहे थे। उन्हें लगा की अगर ये लड़का घर वालो को बुला रहा है तो ये ठीक होने की कगार पर है और इसे कोई मानसिक चोट भी नहीं है। थोड़ी देर तक उनका ये सारा ट्रीटमेंट चलता रहा उसके बाद भईया को आक्सीजन लगा कर बेहोशी में ही छोड़ कर सारे डॉक्टर बाहर आ गए। दादा जी से कहा के "अजय ने अपनी यादाश्त खोयी नहीं है इसका मतलब है के अब दुबारा होश आने तक शायद सब ठीक हो जायेगा। फिलहाल वो जितनी देर सोता है उसे सोने दे बिलकुल भी डिस्टर्ब न होने दें।"

दादा जी ने डॉक्टर का धन्यवाद किया। समय बारह बज कर पच्चीस मिनट हुए थे। अभी पांच मिनट तक मन्नी चाचा की परीक्षा और बाकी थी।

मन्नी चाचा ने किसी को भी ५ मिनट के लिए अन्दर जाने से रोक दिया। अपने थैले से कुछ राख(भस्म) निकली और अन्दर वार्ड में फेंक दी। फिर न जाने किससे वार्ड के अन्दर देखते हुए धीरे धीरे बात कर रहे थे जेसे की अन्दर कोई खड़ा हो। अगले पांच मिनट तक वो कुछ बात सी करते रहे उसके बाद जेसे ही साढ़े बारह बजे के आंकड़े को घडी ने छुआ, उन्होंने वार्ड के अन्दर लपक के कुछ पकड़ा जैसे के कोई साधारण इंसान परेशान करती हुयी मक्खी को पकड़ता है। उसके बाद अपने थैले से कुछ मैले धागे जेसा निकल और मंत्र पढ़ते हुए अपने हाथ पर बाँध लिया। और मामा जी से सबको लेकर अन्दर जाने को कहा और खुद बाहर चले गए और कह दिया के कोई भी मेरे पीछे न आये खासकर इस खानदान का। उन्होंने दादा जी की तरफ इशारा करते हुए कहा।

उनके ये बात सुनने के बाद सब सीधा वार्ड की तरफ दौड़ पड़े। अपने बेसुध बेटे को देखने के लिए। सबके दिल में अब एक आशा थी मगर किसी आशंका ने अभी भी सबके चेहरे के ऊपर छाया डाल रखी थी। सब बैठे सिर्फ भईया के होश में आने का इंतज़ार कर रहे थे।
वहां से निकलने के बाद मन्नी चाचा दुबारा लौट कर अस्पताल नहीं आये मगर उन्होने एक वार्ड के कर्मचारी से खबर भिजवा दी के
वो मामा जी से बाद में मिलेंगे।

शाम तक भईया को होश आ गया और वो एक दम नार्मल हो गए बस थोड़ी सी कमजोरी बता रहे थे। सबको पहचाना भी खाना भी आराम से खाया और जब उनसे ये पूछा गया के उन्हें हुआ किया था तो वो सिर्फ इतना ही कहते की में साइकिल से गिर गया था इसके आगे उन्हें कुछ याद नहीं था। फिर वो घर जाने की जिद करने लगे। शाम तक डॉक्टरों ने कुछ नहीं कहा मगर प्रोफेसर ने घर जाने की इज़ाज़त देदी और कहा की अगर इसे थोड़ी सी भी कोई परेशानी होती है तो इसे तुरंत हॉस्पिटल ले आयें। वरना सिर्फ नियमित चेकअप के लिए ५ दिन तक ले आयें। वेसा ही किया गया और भईया एक हफ्ते के अन्दर एक दम ठीक हो गए।

उधर जब मामा जी मन्नी चाचा के पास पहुंचे तो उन्होंने सारी बातें मामा जी से बताई जो इस प्रकार थी "मेडिकल के मैदान में एक बरगद का पेड़ है यही कोई ढाई सौ साल पुराना। जब ये दोनों भाई सुबह खेलने गए थे तो ये उसके नीचे भी बैठ कर खेले थे। जो उस बरगद पर वास करने वाली शक्ति को पसंद नहीं आया। और ये छोटा लड़का उसी की चपेट में आ गया। वेसे वो शक्ति चाहती तो दोनों को वहीँ पर ख़त्म कर सकती थी मगर दोनों बच्चे हैं इसलिए उसने सिर्फ परेशान किया सबको। इतना ही नहीं वो जिंदगी भर के लिए इसे परेशान करना चाहती थी उसका असर ये होता की ये अपने बुढ़ापे तक या फिर जब तक इसकी जिंदगी है तब तक उसी हाल में बेसुध पड़ा रहता जिन्दा लाश की तरह।"

मामा जी ने पहले अजरज से सुना और फिर एक प्रश्न किया "तो फिर मन्नी भईया इसे काबू कैसे किया?"

उन्होंने इसका भी उत्तर दिया "ये शक्ति यहाँ सब जगह पर घुमती है आज़ाद होकर। कोई इसे यहाँ से न हटा सकता है और न ही इसे पकड़ सकता है। पहले हमने वो उस वार्ड को बाँध दिया जिससे वो बाहर न आ सकी। फिर हमने उसको ये धमकी दी के अगर उसने इस बच्चे को नहीं छोड़ा तो फिर उसे इसी पेड़ पर बाँध देंगे। हमेशा रहना पड़ता उसे कैदी की तरह इसलिए उसने अपनी आज़ादी के लिए अजय को छोड़ दिया।"

मामा जी ने अगला सवाल पेश कर दिया "भईया वो शक्ति आखिर थी कौन सी?"

इस सवाल पर मन्नी चाचा मौन खिंच गए और मामा जी द्वारा बार बार प्रश्न करने पर सिर्फ इतना कहा के "आम इंसान के लिए उसका नाम लेना ठीक नहीं है उसने मुझसे वचन लिया है के मैं उसका अस्तित्व किसी को न बताऊ। मगर सिर्फ इतना जान लो के वो शक्ति बरम के आस पास की थी।"

ये सुन कर मामा जी का गला सुर्ख हो गया और उन्होंने आगे कोई प्रश्न नहीं किया। बस थोड़ी देर वहां रुके और वापस घर चले आये।

मुझे ये घटना मामा जी ने ही बताई थी।मैंने मन्नी चाचा की क्रियाओं के बारे में पुछा तो उन्होंने कहा के मन्नी चाचा ने कभी किसी साथ अपने राज़ नहीं बांटे इसलिए ये बात बताना मुश्किल है। जब मैंने उनसे पुछा के बरम क्या होते हैं तो उन्होंने मुझे सिर्फ इतना बताया के बरगद के पेड़ो का अस्तित्व इन बरम पर ही निर्भर करता है। इसलिए अगर कभी मेरा उस तरफ आना जाना हो तो उस बरगद के पेड़ की जय कर लू, एक शक्ति नहीं एक ढाई सौ साल का बुजुर्ग समझ कर।

आज भी अक्सर आते जाते मुझे वो पेड दिख जाता है तो सिर्फ "जय हो" के सिवा न कोई नाम और न ही कोई और शब्द मन में आता है।

धन्यवाद।

Wednesday, July 10, 2013

नरयनी

नाम - नरयनी
पोस्ट - स्वीपर और वार्ड क्लीनर
स्थान - कंबाइंड हॉस्पिटल, कानपुर कैंट।

जब मेरे नाना जी ड्यूटी पर हुआ करते थे कंबाइंड हॉस्पिटल में तब वहां एक नरयनी नाम की जमादारिन हुआ करती थी। उनकी बोली और व्यव्हार अत्यधिक सोम्य था। सबसे प्रेमपूर्वक व्यव्हार करना क्या छोटा क्या बड़ा। सब उनके लिए एक जेसे थे। वो एक स्वीपर थीं फिर भी लोग उनकी बहुत इज्ज़त करते थे। वो वक्त एक तरह से कंबाइनड हॉस्पिटल का सुनेहरा समय था जहाँ सारे कर्मचारी आपस न सिर्फ परिवार की तरह काम करते थे बल्कि घर के लिहाज़ से एक दुसरे के पडोसी भी थे। नरयनी हमारे घर एक सामने वाले एक घर में रहती थीं। अक्सर घर भी आया जाया करती थीं। पडोसी होने के नाते भी उनका व्यव्हार बहुत अच्छा था। उनके पति कहीं बाहर काम करते थे, उनके घर में उनके सास ससुर और एक ननद थीं और उनका एक बेटा था। पूरा आस पड़ोस और हॉस्पिटल सब समय एक दम सही चल रहा था जब तक के उस साल की उस होली ने दस्तक नहीं दी थी, जो बाद में वहां दहशत की वजह बनी।

होली के दिन की बात है उस दिन हॉस्पिटल की तरफ से वरिष्ठ पदाधिकारियों को रम की बोतलें भेंट की गयी थी। जो सेना के अफसरों को विशेष तौर पर दी जाती है XXX रम। लेकिन उस वक़्त के एक अधिकारी को उसका शौक नहीं था तो उसने वो बोतल नरयनी को दे दी। नरयनी को पीने का शौक था लेकिन सिर्फ खास मौकों पर हमेशा नहीं। इसलिए वो यह बोतल पाकर अत्यधिक खुश हुयीं।

नरयनी उस बोतल को लेकर अपने घर आयीं और फिर पीने की तैयारी करने लगीं। उन्होंने सारा अपना कार्यक्रम जमा लिया था होली के पापड़ और कुछ व्यंजनों के साथ वो रम पीना चाहती थीं। उन्होंने अपने पीतल के गिलास में रम डाली और पानी वगेरह कुछ नहीं मिलाया था के तभी किसी ने उनको बाहर से आवाज़ दी और वो वेसे ही अपना गिलास रसोई में खास जगह पर छुपा कर चली गयीं। बाहर से जिसने बुलाया था वो उनके रिश्तेदार थे, जो की होली के उपलक्ष पर उनसे मिलने आये थे। रिश्तेदारों की जिम्मेदारी आते ही उन्हें काम काज में लगना पड़ा। उनके लिए खाना बनाना, सारे सेवा सत्कार करना। इनसब कार्यो को निबटाने और रिश्तेदारों से बातचीत करने में उन्हें शाम हो गयी। शाम को रिश्तेदार जब रुख्सत हुए तब जाकर उन्हें थोडा आराम करने का वक़्त मिला। थोड़े आराम के बाद वह रात के खाने की तैयारी करने लगीं। खाना बनाते वक़्त उनका ध्यान उस रम पर गया वो उन्होंने गिलास उठाया उसमे वो आधा गिलास रम अभी भी वेसे ही रखी थी। उन्होंने सोचा, अब क्या इस रम को फेंका जाये, न अलग से पानी मिलाया न कुछ वो उसे वो पी गयीं। उनकी ननद ने जिज्ञासावश उनसे पूछा की उसमे क्या था। उन्होंने यथावत सब बता दिया। वो बात को इसे ही नार्मल समझ कर टाल दिया गया।

खाना तैयार हो चुका था। सबने खाना खाया और फिर उसके बाद सब सोने चले गए। सुबह उठ कर जब उनकी ननद नरयनी को उठाने गयी तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और फिर जब उन्हें हिलाया गया तो पता चला के वो मर चुकी हैं। ये कब हुआ कैसे हुआ किसी को कुछ पता ही नहीं चला था। बदन नीला पड़ चुका था। सबने सोचा शायद सांप ने काटा है। उन्हें जल्दी जल्दी उठा कर हॉस्पिटल लाया गया, वहां उन्हें डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया। और ये भी स्पष्ट कर दिया की ये सांप के काटने के लक्षण नहीं बल्कि इन्होने कोई ज़हर खाया है।

मगर ये असंभव था क्योंकि नरयनी जेसी जिंदादिल स्त्री ऐसा नहीं कर सकती थी। ये बात न सिर्फ पूरा स्टाफ बल्कि स्वयं डॉक्टर भी जानते थे। इसलिए उन्होंने घर वालों से पूछा की कल उन्होंने क्या खाया और कोई इसी बात तो नहीं हुयी जिसने उन्हे ऐसा कदम उठाने पर मजबूर किया हो?

जवाब सबका स्पष्ट था उन्होंने अपनी अनभिज्ञता जताई और फिर उनकी ननद ने वो रम वाली बात भी डॉक्टर को बता दी। डॉक्टर ने इस बात को फिर सबके सामने स्पष्ट कर दिया की उनकी मौत वो रम पीने से हुयी है। सब इस बात से हैरान थे के ऐसा कैसे हो सकता है वो रम तो स्वयं डॉक्टर ने उन्हें भेंट की थी और वो भी सेना के अफसरों को भेंट दी जाने वाली ट्रिपल एक्स रम ज़हरीली कैसे हो सकती है। इस पर डॉक्टर ने उन सब को समझाया की अगर किसी भी अल्कोहल को चार से आठ घंटे तक अगर किसी पीतल के बर्तन में रखा जाये तो वो ज़हरीला हो ही जाता है। वो भी इतना ज़हरीला के किसी की जान भी ले ले।

खैर मौत की वजह पता चल चुकी थी इसलिए थाना पुलिस करने का कोई फ़ायदा नहीं था। इसलिए उसी दिन शाम के करीब ४ बजे तक उनका अंतिम संस्कार का कार्यक्रम निश्चित कर दिया गया। सारे रिश्तेदार आते रहे और पूरा इलाका शोकाकुल था। अस्पताल के स्टाफ के बीच भी रोज़ की तरह कोई रौनक नहीं थी। उस स्टाफ की ड्यूटी भी ३ बजे ख़त्म हो गयी उसके बाद पूरा स्टाफ नरयनी की अंतिम यात्रा में थोड़े कदम मिलाने के लिए वहां एकत्र हो गया।

डॉक्टर, कम्पाउण्डर, वार्ड बॉय, क्लीनर, और साथी स्वीपर सभी नरयनी की अंतिम यात्रा में शामिल होने आये थे। एक तरह से उस दिन पूरा अस्पताल ही वहां मौजूद था, क्या आसपास वाले क्या दूर रहने वाले सब वहीँ मौजूद थे।

नरयनी की एक मित्र व सहकर्मचारी वहीँ पर मौजूद थीं स्वीटी आंटी। जो अक्सर अत्यधिक खुशबू वाले इत्र लगाया करती थीं। लोग अस्पताल में भी अक्सर उन्हें उनकी इत्र की महक से जान जाते थे। उस दिन भी वो इसी तरह ड्यूटी पर आयीं थी। और उसके बाद फिर वहां से नरयनी की शव यात्रा में शामिल होने आ गयीं थी। नरयनी के घर के अन्दर सभी बहुत रो रहे थे और बाहर भी कई लोग अपने आंसू नहीं रोक पा रहे थे।

अचानक तभी स्वीटी आंटी बेहोश होकर गिर पड़ीं। स्टाफ वालों का ध्यान नरयनी से हटकर आंटी पर गया और फिर सबने उन्हें उठाया और एक जगह पर ले जाकर लेटा दिया और होश में लाने के लिए उनके चेहरे पर पानी की छींटे मारी। मगर उन्हें कोई होश नहीं आया। वहां मौजूद हॉस्पिटल स्टाफ में से कई लोगो ने जांच की सब नार्मल लगा मगर उन्हें होश नहीं आ रहा था।

आनन् फानन में सब उन्हें उठाकर हॉस्पिटल ले गए वो बेहोश ही रहीं। उस वक़्त मेरे नाना जी हॉस्पिटल में ही थे उनकी ड्यूटी का समय था उस वक़्त, जैसे ही आंटी को वहां के मरीज़ वाली पलंग पर लेटाया गया उन्हें होश आ गया। लेकिन उन्होंने तुरंत मेरे नाना जी देख कर चिल्लाना शुरू कर दिया।

"दुलारे भईया, हम हैं। हमको न लेटाओ यहाँ, हमको सुई लगवाने से बहुत डर लगता है।" वो चिल्लाते चिल्लाते बोली।

मेरे नाना जी का नाम लेते हुए जब वो ये शब्द बोलीं तो उनके बोलने के अंदाज़ से नाना जी और बाकि स्टाफ तुरंत समझ गए की ये तो नरयनी है। मगर सब बहुत हैरान थे इस बात से। क्योकि वहां मौजूद सबका मानना था की किसी की भी जब मृत्यु होती है तो उसकी रूह तेरह दिन बाद भटकती है। लेकिन आज ये बात गलत साबित हो गयी थी। उनके आस पास से सब हट गए सिर्फ मेरे नाना जी और एक व्यक्ति उस वक़्त वहां डटे रहे। वो थोडा बहुत चिल्लायीं मगर उनका स्वाभाव वो नहीं था जेसा की हुआ करता था। अब नरयनी बहुत उखड़ी और गुस्सेल स्वाभाव से बात कर रही थी।

एक पल को रोतीं और दुसरे ही पल हंसती वहां मौजूद लोगो को देख कर फिर अचानक भागने की कोशिश करतीं। स्वीटी आंटी को वहां के लोगो ने पलंग से बाँध दिया और फिर उनके घर वालो को खबर कर दी। डॉक्टर ने उन्हें जबरदस्ती एक नींद का इंजेक्शन दिया जिससे वो थोड़ी देर के लिए शांत हो गयीं। वहां मौजूद कम उम्र के कर्मचारियों की हालत ख़राब हो गयी थी। जो उन्होंने देखा वो अविश्वस्निए था। जिसकी लाश सामने पड़ी हो वो वहीँ पर मौजूद किसी पर भी कैसे सवार हो सकता है? ये सवाल सबके दिमाग में हथोड़े बजा रहा था और दहशत के बादल वो वेसे ही बरसे जा रहे थे उनपर।


डॉक्टर ने ये सोच कर उन्हें नींद का इंजेक्शन दिया था की शायद उन्हें नरयनी की मौत का सदमा पहुंचा होगा, थोड़ा सो लेंगी तो ठीक हो जाएँगी। लेकिन उस इंजेक्शन का असर दस मिनट से ज्यादा नहीं रहा और वो दुबारा होश में आ कर वापस उलटी सीधी बातें करने लगी। डॉक्टर भी इस बात से हैरान हो गए की जो इंजेक्शन किसी भी इंसान को आठ घंटे के लिए सुला सकता है उसका असर दस मिनट में कैसे ख़त्म हो गया?

सारा तमाशा सा चल रहा था और स्टाफ तमाशाबीन बनकर सब देख रहा था। डर की वजह से कुछ लोग तो तुरंत हॉस्पिटल छोड़ कर भाग गए थे। कुछ देर बाद स्वीटी आंटी के घर वाले आ गए, और वो लोग उन्हें वेसी ही हालत में घर ले गए।

उधर दूसरी तरफ नरयनी की लाश का निश्चित समय पर अंतिम संस्कार कर दिया गया। घटना पड़ोस की ही थी इसलिए नाना जी ने घर आ कर हॉस्पिटल में क्या क्या हुआ किसी को कुछ नहीं बताया। डर ने नाना जी के मन में भी कहीं न कहीं घर बना लिया था, सिर्फ इसलिए कहीं नरयनी की रूचि उनके परिवार की तरफ न जाग जाए। खैर वो रात में खाना खाने के बाद सो गए दिन भर की घटना को याद करते करते। उस भ्रम के बारे में सोचते हुए के तेरह दिन से पहले ऐसा कैसे हो गया?।

अगले दिन स्वीटी आंटी हॉस्पिटल नहीं आयीं। सब वजह जानते थे इसलिए किसी ने दुबारा मालूम करने की कोशिश नहीं की।
तीसरे दिन जब आंटी हॉस्पिटल आयीं तो सबने उन्हें इसे घेर लिया जैसे के किसी बड़ी हस्ती को भीड़ घेर लेती है। सब यहीं जानना चाहते थे की उनके साथ ऐसा क्यों हुआ और वो ठीक कैसे हुयीं मगर सबके प्रश्नों की शुरुआत हलचल पूछने से ही शुरू हुयी।

धीरे धीरे सब मुख्य विषय पर आ गए वो सारे सवाल बरसा दिए गए उनपर। उन्होंने बताया की जब वो नरयनी के घर पर सब कुछ होते हुए देख रहीं थी तो उन्हें सड़क की तरफ जो की नरयनी के घर से करीब पंद्रह कदम की दूरी पर है, वहां एक औरत को देखा बिलकुल नरयनी जैसी ही थी मगर उनके साथ एक आदमी और था। उन्होंने इसे सिर्फ चेहरे के मेल का एक संयोग समझा और उस तरफ से ध्यान हटा लिया जब दुबारा उस तरफ देखा तो वहां कोई आदमी नहीं था सिर्फ वो औरत खड़ी वहां पर रो रही थी। उसका चेहरा अब साफ़ दिख रहा था, वो नरयनी जैसी नहीं नरयनी ही थी। जब स्वीटी आंटी गौर से नरयनी को देखती रही तो नरयनी ने रोना बंद कर दिया और बिना कदम हिलाए बढती हुयी सीधा उनके सामने २ कदम दूर खड़ी हो गयी। ये देख कर वो बहुत ही ज्यादा बुरी तरह डर गयीं और उसके बाद उन्हें कुछ नहीं याद के क्या हुआ और उनकी आँख अगले दिन सुबह खुली। उनके शरीर में बहुत कमजोरी लग रही थी इसलिए वो हॉस्पिटल न आ सकीं।

आगे स्टाफ ने उन्हें बताया के उनके बेहोश होने के बाद वहां हॉस्पिटल में क्या क्या हुआ और उन्हें कैसे उनके घर वाले आकर घर ले गए थे। सब आगे की घटना जानने के लिए उत्सुक थे इसलिए उन्होंने आखिरकार पूछ ही लिया के वो कैसे हुयीं? उन्होंने इस बात से अनभिज्ञता ज़ाहिर की मगर वो बताया जितना के उनके पति ने उन्हें बताया था।

वो ये था के जब उन्हें हॉस्पिटल से घर ले जाया जा रहा था तो बिलकुल होश हवास में नहीं थी आंखें बंद थी और न जाने क्या क्या बोले जा रहीं थी। उनके पति उन्हें घर ले जाने के बजाये सीधा चर्च(गिरजाघर) लेकर गए। वहां पर उस चर्च के महंत(father) और ३ नन ने मिलकर कोई क्रिया की थी। जिसमे उन्होंने एक घेर सा बना कर उसके अन्दर उन्हें बैठा दिया था और ३ तरफ से नन और एक तरफ से फादर ने उन्हें घेर रखा था। उसके बाद नरयनी की आत्मा से सवाल जवाब भी किये, जिसमे नरयनी ने बताया की वो स्वीटी के इत्र की खुशबू की तरफ आकर्षित हुयी, इसलिए वो आंटी पर सवार हो गयी थी। उसके बाद नरयनी की रूह को आंटी के शरीर से हटा दिया गया। नरयनी की रूह का क्या हुआ क्या नहीं उन्हें नहीं पता था।

जब स्टाफ वालो ने पूछा के नरयनी के साथ जो आदमी था उसके बारे में फादर ने कुछ बताया तो उन्होंने बताया की अगर वो होश में होती तो फादर से जरुर पूछती मगर नरयनी के साथ कोई आदमी था ये बात सिर्फ उन्हें ही पता थी और उसके बाद उन्हें होश सीधा अगले दिन सुबह आया था।

इसका मतलब साफ़ था की स्वीटी आंटी के ऊपर जो सवार थीं वो नरयनी ही थी मगर उनके साथ जो आदमी दिखा था उसकी कोई छाया तक स्वीटी आंटी पर नहीं पड़ी थी। वरना उसके बारे में भी चर्च के फादर कुछ न कुछ जरुर बताते।

स्वीटी आंटी के साथ घटी ये घटना बहुत तेज़ी से पूरी कॉलोनी में फ़ैल गयी। जो समझदार थे वो समझ सकते थे मगर कुछ लोग अत्यधिक इस घटना से डर चुके थे और डर अक्सर वहम का कारण होता है। इसलिए वहम की वजह से अक्सर लोग ये कहते के उन्होंने नरयनी को देखा है, जो बात सरासर गलत होती थी। वो सिर्फ वहम से डरते थे। क्योंकि पूछे जाने पर की "नरयनी ने कौन से कपडे पहने थे?" लोग अक्सर अपने वहम के जोगे में नरयनी की तस्वीर बयां करते थे। नरयनी को जब स्वीटी आंटी ने देखा था तब वो उस कपडे में नहीं दिखी थी जिसमे वो मरी थी। बल्कि उस कपडे में दिखती थी जो हॉस्पिटल स्टाफ की ड्रेस थी। जिसकी वजह सिर्फ एक अद्भुत सच्चाई थी जिसे मैंने बाद में जाना। और कुछ लोग अक्सर अपने वहम में उसे उसी कपड़ो में देखते जिसमे उसकी मृत्यु हुयी थी, और कुछ लोग अपने वहम की चादर में।

धीरे धीरे इस घटना पर समय की परतें चढ़ती चलीं गयीं। इस घटना की चर्चा और नरयनी का खौफ दोनों धुंधले पड़ने लगे थे। सब लोग आराम से कभी कभार नरयनी की बात करते मगर फिर भूल जाते। सबकी समझ में आ चुका था की नरयनी अब यहाँ नहीं है।

३ साल ७ महीने और २१ दिन बाद

सब कुछ सामान्य चल रहा था। एक दिन की बात है, एक नयी स्वीपर आई थी हॉस्पिटल में काम करने। उसकी उम्र यही कोई पच्चीस या छब्बीस वर्ष रही होगी, उनका नाम रानो था। रोज़ की तरह वो उस दिन भी सामान्य रूप से सुबह हॉस्पिटल पहुँच गयी। रात्रि की शिफ्ट में काम करने वाले स्टाफ का जाने का वक़्त था और आधे से ज्यादा जा भी चुके थे। रानो ने हॉस्पिटल में पहुँच कर अपना कार्य आरंभ किया। वो हॉस्पिटल के पीछे वाले वार्ड में झाड़ू लगा कर उससे अगले वार्ड में झाड़ू लगाने लगीं। बाकि स्वीपर आकर अपना अपना कार्य करते इसलिए वो पहले अपना कार्य निपटाने में लगीं हुयीं थी।

दुसरे वार्ड में झाड़ू लगते लगते उन्हें ऐसा लगा के कोई पिछले वार्ड में झाड़ू लगा रहा है। उन्होंने सोचा लगता है दूसरी स्वीपर भी आ गयीं हैं उन्हें बता देते हैं की उस वार्ड में झाड़ू लग चुकी है अब वो वहां पोछा लगा ले।

ये बताने के लिए वो उस पिछले वार्ड में गयीं। वहां पर जा कर देखा तो एक स्वीपर वहां पर झाड़ू लगा रही थी बिना झुके सिर्फ खड़े खड़े इधर से उधर झाड़ू डोला रही थी उसकी पीठ रानो की तरफ थी। ये देख कर रानो ने सोचा के ये झाड़ू लगा रही है या नाटक कर रही है।

फिर रानो ने खुद ही कहा "बहन जी, यहाँ झाड़ू लग चुकी है। दुसरे वार्ड में जाकर लगा लो।"

मगर रानो को उसने कोई जवाब नहीं दिया।

"बहन जी, ओ बहन जी। यहाँ नहीं दुसरे में लगा लो यहाँ हम साफ़ कर चुके हैं।" रानो ने अपनी बात दोहराते हुए दुबारा उससे कहा।

मगर इस बार भी रानो को कोई जवाब नहीं मिला। फिर उसने पास जाकर ही ये बात कहने की सोची। वो ठीक उस दूसरी स्वीपर के पास कोई दो कदम की दुरी पर रुकी और अपनी बात दोहराई। इस बार उसकी बात उसने सुनी और पीछे मुड़कर रानो को देखा। अगले ही पल रानो की चीख निकल गयी और वो बेहोश हो गयी।

उसकी आवाज़ सुनकर आस पास के मौजूद स्टाफ वाले भाग कर आये। उन्होंने रानो को उठाया और ले जा कर सीधा डॉक्टर के केबिन में लेटा दिया। सुबह के वक़्त हॉस्पिटल में कोई बड़ा डॉक्टर नहीं था, तुरंत डॉक्टर को इस बात की जानकारी दी गयी और उन्हें उनके घर से बुला लिया गया। डॉक्टर हॉस्पिटल आने ही वाले थे इसलिए ५ मिनट के अन्दर ही वहां पहुँच गए, उन्होंने रानो की जांच की और नर्स से बिगो लगाकर ग्लूकोस चढाने को कह दिया। नर्स ने बिना देर किये, सब कुछ वहां हाज़िर कर दिया। जेसे उन्होंने रानो का हाथ पकड़ कर उसपर इंजेक्शन लगाने के लिए स्प्रीट से भीगी रुई लगायी।

वो अचनाक होश में आ गयी और बदले हुए लहज़े में चिल्लाने लगी "नहीं हमारे सुई न लगाओ, हमे सुई लगवाने से डर लगता है।"
इस बात को सुन कर सब हैरान रह गए। वो स्वीपर अभी नयी थी और उसे नरयनी के बारे में कुछ नहीं पता था। मगर आज ये सब देख कर वापस स्वीटी आंटी वाली घटना सबके दिमाग में वापस साफ़ हो गयी। मतलब नरयनी वापस आ चुकी थी। सब डर कर पीछे हट गये और करीब ३ या चार मिनट बाद वो बेहोश हो गयी।

दुबारा से डर ने दस्तक दे दी थी और अब सब इस बात के लिए तैयार थे की पिछली बार जिस तरह से इससे निजात मिली थी, दुबारा से वही तरीका अपनाया जाए। सबने रानो को एक तरफ छोड़ कर उसके घर वालो को बुलवाया और स्वीटी आंटी का इंतज़ार करने लगे। तभी रानो में थोड़ी हरकत होती दिखाई दी, उसके हाथ हिल रहे थे और वो होश में वापस आ रही थी। सब इस बात के लिए खुद को तैयार कर चुके थे की नरयनी का वही खेल दुबारा शुरू हो जायेगा, चिल्लाना और डराना। तभी वहां स्वीटी आंटी आ पहुंची थी, सबने ख़ुशी से उनकी देखा और सबसे पहले यही सवाल पूछा की वे नरयनी से निजात पाने के लिए कौन सी चर्च ले जाई गयीं थी। सबसे पहले वो नरयनी का नाम सुनते ही डर गयीं और फिर सबने उन्हें वहां घटा सारा वाक्या बयां कर दिया और उनसे मदद मांगी। वो मदद करने को तैयार तो थीं मगर उन्होंने बताया की वो फादर जिन्होंने उन्हें बचाया था वो कोई ३ महीने पहले ही चल बसे और वहां मौजूद नान और नए फादर इस तरह के ज्ञान के माहिर नहीं हैं।

अब सबके ऊपर जैसे डर ने की कालिमा छा गयी थी। हर कोई इस बात से डरा हुआ था की अब क्या होगा? उधर रानो को भी होश आ रहा था। सबने मिलकर नरयनी के उस खेल को रानो के घर वालों के आने तक झेलना ही उचित समझा, ऐसे समय में और किया भी क्या जा सकता था?

रानो ने आंखें खोली और सबकी तरफ एक नज़र देखा। सबका चेहरा पीला पड़ गया। मगर वो उठ के खुद को समेट कर पलंग के सिराहने की तरफ डरी हुयी सी बैठ गयीं।

वो कुछ नहीं बोल रही थी या फिर शायद किसी और के पहले बुलाने का इंतज़ार कर रही थीं। सब चुपचाप खड़े ये सब देख रहे थे, तभी मेरे नाना जी अपने निश्चित समयानुसार उस वक़्त ड्यूटी पर पहुंचे। उन्होंने सबको देखा और फिर एक आदमी ने उन्हें एक तरफ ले जाकर सब कुछ जो भी हुआ था बता दिया। मेरे नाना जी सीधा वहां पहुँच गए और वो देखना चाहते थे की वो नरयनी ही है या कोई और क्योकि नरयनी का भ्रम कई लोगो को हो चुका था। लेकिन फिर उन्होंने सोचा की सारे ढंग तो नरयनी वाले ही हैं।

फिर उन्होंने सारी बात एक किनारे करते हुए सीधा रानो को जांचने के लिए आवाज़ दी "रानो! क्या हुआ?"

रानो ने डरते हुए नाना जी की तरफ देखा। नाना जी ने फिर से पूछा "क्या हुआ बेटा?"

वो डरते हुए रोने लगी और बोली "चाचा जी वहां, वार्ड में मैंने किसी को देखा। वो कोई औरत थी बिलकुल हमारे जेसे कपड़ो में और बाल खुले थे उसके। चेहरा काला काला था और बहुत डरावना था।" कहते कहते और ज्यादा तेज़ से रोने लगी थी वो।

"मुझे यहाँ काम नहीं करना, मुझे कहीं और काम दिलवा दीजिये चाचा जी।" रोते रोते वो नाना जी बार बार यही कह रही थी।

उसकी नौकरी भी नाना जी ने ही लगवाई थी इसलिए उसने सारी मन की बात नाना जी से कह दी।सबको ये जानकर बहुत संतुष्टि हुयी की अब उसके ऊपर नरयनी की कोई आमद नहीं थी। मगर एक बात निश्चित हो चुकी थी की जिसको रानो ने देखा वो नरयनी ही थी। क्योंकि उसको आये अभी कुछ ही महीने हुए थे, और वो नरयनी से जुडी बातों से बिलकुल अनजान थी। और किसी को भी सुबह के वक़्त और पहली ही बार में इतना बड़ा भ्रम नहीं हो सकता। वो जो भी कह रही थी सच था क्योंकि कोई इतनी आसानी से अपनी नौकरी क्यों छोड़ना चाहेगा?

अब रानो के घर वाले आ चुके थे और वो रानो की बात सुनकर रानो को अपने साथ ले गए। यहाँ हॉस्पिटल में डर का माहोल अपनी बाहें पसार रहा था। सबको कड़ी हिदायत दी गयी की इस बारे में कोई किसी भी मरीज़ या फिर दुसरे शिफ्ट के स्टाफ के किसी भी व्यक्ति से कोई बात नहीं करेगा।

वो दिन किसी तरह सबने बिता दिया, मगर किसी की भी समझ से बाहर था की नरयनी वहां आई क्यों थी? सिर्फ डराने के लिए या फिर मौजूदगी का एहसास दिलाने के लिए? ऐसी ही उधेड़ बुन में पड़ा पूरा स्टाफ परेशान था। अगले दिन जब स्टाफ के लोग वापस काम पर हॉस्पिटल आये तो कोई भी खाली कमरे में अकेला जाने से डर रहा था। स्टाफ का हर व्यक्ति किसी न किसी के साथ ही अपना अपना काम कर रहा था। आने वाले मरीज़ इस बात से बेखबर थे और वो आराम से आ जा रहे थे।

कोई दो दिन ही बीते थे इस बात को। तीसरे दिन की सुबह हमारे पडोसी नाना जी के पास आये। उन्होंने नाना जी को अकेले में ले जा कर बात की। उन्होंने बताया की कल रात उन्होंने नरयनी को देखा। नरयनी उनके घर के बगल ही रहा करती थी मृत्यु से पहले। उन्होंने बताया की कल रात जब बाहर आँगन में चारपाई डाल कर सो रहे थे तभी अचानक आवाज़ आई "चच्चा! ओ चच्चा।"

जब उन्होंने पलट कर देखा तो वहां नरयनी खड़ी थी अपने हॉस्पिटल की यूनिफार्म में और अपने ही अंदाज़ में उन्हें बुला रही थी।

"चच्चा! अन्दर आने दो ना।" वो घर के बाहर बंधे तारों के बाहर खड़ी थी। और उन्हें आवाज़ पर आवाज़ दिए जा रही थी। उनके घर में नरयनी की आवाज़ के सबने सुना और सबने डर सहम कर एक ही कमरे में जागते हुए रात बितायी। उसने पूरी रात में कई बार उन्हें बुलाया और दिखाई भी दी। लेकिन वो बहुत पहले ही नरयनी की मृत्यु के समय ही अपने घर का कीलन करवा चुके थे शायद इसलिए वो घर के अन्दर नहीं आ सकी।

नाना जी ने उनसे पूछा की "वो अपने घर में नहीं गयी?"

उन्होंने बताया की "शायद गयी हो मगर अब तो वहां उसके परिवार का कोई नहीं रहता और वो क्वार्टर भी खाली पड़ा है।" मगर उस घर में उन्होंने नरयनी को नहीं देखा वो बस उनके घर की बाउंडरी की बाहर ही टहल रही थी।

इस बात से मेरे नाना जी भी सोच में पड़ गए, क्योंकि अब नरयनी खतरनाक रूप लेती जा रही थी। यूँ ही खुले आम रात में कई बार आवाज़ देना और दिखाई दे जाना, ये तो वही कर सकता था जिसको पकडे जाने का डर न हो। नाना जी ऐसी कई बातों से अवगत थे, उनकी समझ में ये आया की शायद नरयनी को किसी और शक्ति का संरक्षण प्राप्त है। मगर वो कौन सी हो सकती है ये बताना तो किसी भी आम इंसान के लिए नामुमकिन था।

सारी बातें जो आस पास घट रहीं थी उन्हें नज़र अंदाज़ करना किसी के बस की बात नहीं थी। ये बात नाना जी भी जानते थे इसलिए वो भी चिंतित थे। क्योंकि नानाजी जिस क्वार्टर में रहते थे उसकी अगली लाइन के क्वार्टर में ही ये सब घटनाये चल रही थी। नाना जी इस बात से थोड़े निश्चिंत थे की अभी तक नरयनी का कोई भी साया इस क्वार्टर के लोगो की तरफ नहीं था। शायद उसकी हद उसी लाइन तक ही थी।

वहां सारे क्वार्टर दो मंजिला थे। मतलब एक कर्मचारी अगर नीचे की मंजिल में रहता है तो दूसरा ऊपर की मंजिल में। इसी तरह पूरी कॉलोनी बसी थी। एक दो दिन के अंतराल के बाद एक घटना और घटी। जिन चच्चा को नरयनी आवाज़ देती थी उन्ही के ऊपर के क्वार्टर में मिश्रा जी और पत्नी रहती थी। उस रात बिजली नहीं आ रही थी इसलिए वो दोनों रात को सोने के लिए छत पर चले गए। वो लोग काफी नरयनी की मौजूदगी से अनभिज्ञ नहीं थे मगर वो नरयनी से डरते भी नहीं थे। उस रात को वो लोग छत पर सोये हुए थे। मिश्रा जी को नींद आ चुकी थी मगर उनकी पत्नी तब जाग रही थी। अचानक उन्हें ऐसा लगा की नीचे से कोई रोशनी आ रही है। उन्होंने सोचा की शायद बिजली आ गयी, ये देखने के लिए वो उठी और छत की बाउंड्री के पास जाकर देखा। बिजली आ चुकी थी। उन्होंने मिश्रा जी को उठाया और जाने के लिए आगे बढ़ी और रुक गयीं।

उन्होंने मिश्रा जी को बुलाया वो नीचे देखते हुए कहा "देखिये वहां कोई खड़ा है।"

"रात के 1:30 बजे कौन खड़ा होगा? तुम्हारा वहम होगा। चलो नीचे चलें।" मिश्रा जी ने बात टालते हुए कहा।

"नहीं देखिये तो, कोई औरत है। कहीं कोई चोर वगेरह तो नहीं?" उन्होंने आशंकित होकर कहा।

मिश्रा जी को भी लगा की शायद देखना चाहिए। आखिर इस वक़्त कोई औरत क्या कर रही है यहाँ।

जैसे ही मिश्रा जी उनकी तरफ बढे अचानक तो डरते हुए बोलीं, "अरे ये तो नरयनी है।"

इतना कहते ही वो तुरंत बेहोश हो गयीं। भाग कर मिश्रा जी ने उन्हें उठाया और अपने घर ले गए। वहां उनके ऊपर पानी छिड़का और वो होश में आयीं। मिश्रा जी ने काफी पूछा की क्या हुआ था? कैसे बेहोश हो गयी? मगर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। सिर्फ पास रखा एक गिलास पानी पिया और फिर बिना किसी सवाल का जवाब दिए सो गयीं। मिश्रा जी ने समझा के शायद नरयनी का डर है। जिसकी वजह से वो कुछ बोल नहीं पायीं और सो गयीं। वो भी निश्चिन्त होकर सो गए की जो भी होगा सुबह पूछा जायेगा। लेकिन सुबह हुए तो वो उठने का नाम ही नहीं ले रहीं थी। पहले तो मिश्रा जी ने बहुत कोशिश की मगर वो नहीं उठी न ही आंखें खोली।

फिर दौड़ते हुए नाना जी के पास आये क्योंकि नाना जी ने जाकर उन्हें देखा तो बिलकुल बेहोश पड़ी थी। उनके ऊपर काफी पानी वगेरह पहले ही मिश्रा जी डाल चुके थे। मगर उन्हें कोई होश नहीं आ रहा था। मिश्रा जी ने फिर नाना जी को रात को घटी सारी घटना बताई।
नाना जी ने इस बात की पुष्टि के लिए के उनके ऊपर नरयनी ही सवार है एक प्रयोग किया। वो तुरंत घर से एक इंजेक्शन लेके आये। कई लोग नाना जी से घर पर ही दवा वगेरह लेने आते थे इसलिए नाना जी अक्सर ऐसे सामान घर में ही रखते थे। नाना जी फर्जी ही इंजेक्शन लेके ये कहते हुए उनकी तरफ बढ़े की "नरयनी को इंजेक्शन देना पड़ेगा।"

इतना सुनते ही वो तुरंत होश में आ गयीं और वापस अपना वही राग शुरू कर दिया "दुलारे भईया, सुई न लगाना हमे सुई से बहुत डर लगता है।"

इस बात से पुष्टि हो गयी की मिश्रा जी की पत्नी के ऊपर नरयनी का ही साया था और उनके रोने शोर मचाने से आस पास के लोग भी ये जान गए। नरयनी उनपर सवार ही थी, कभी रोती तो कभी हंसती तो कभी आस पास के लोग को मारने दौड़ती। सबकी सांसे थमती जा रही थी। कुछ लोग वापस अपने घर भाग गए और इस तरह से खुद को बंद करके बैठ गए की जैसे वहां रहते ही न हो। नाना जी मिश्रा जी और कुछ लोग वहीँ इस डर का सामना करते हुए ये तय कर रहे थे की क्या किया जाए? हॉस्पिटल ले जाने से कोई फायदा नहीं था क्योंकि ये स्पष्ट था की ये कोई बीमारी नहीं।

तभी अचानक मिश्रा जी की पत्नी शांत हो कर एकदम सीधी लेट गयीं। सबने सोचा शायद नरयनी अब जा रही है। मगर उन्हें नहीं पता था की जो होने वाला है उससे उनकी निडरता की बुनियाद तक हिल जाएगी और डर अपनी जगह बनाने में कामयाब हो जायेगा।
वो सीधी लेटी थी के उनके हाथ पाँव ऐठने लगे जैसे के कोई किसी कपडे को निचोड़ कर पानी निकलता है। वो ऐसे तड़पने लगीं के मानो उन्हें शरीर से जान निकलने वाली हो। उनके हाथ पाँव एक दुसरे की विपरीत दिशा में घूमते जा रहे थे उनके मुंह से फैना आना शुरू हो गया जैसे के किसी सांप ने काट लिया हो। उनकी गर्दन भी ऐठने लगी। और पीछे की और मुड़ती जा रही थी। मिश्रा जी ये सब देख कर बेहोश हो गए और आस पास खड़े लोग भागने लगे, चिल्लाते मदद की गुहार सी लगाते की शायद कोई आकर ये सब ठीक कर सके। नाना जी के हाथ भी काँप रहे थे मगर वो वहां से नहीं गए, क्योंकि हॉस्पिटल में वो कई बार ऐसे तड़पते हुए कुछ लोग को देख चुके थे।
क्या किया जाए क्या नहीं ये तो दिमाग में किसी के था ही नहीं। तभी वो लम्बी लम्बी सांसे लेने लगीं जेसे के बस अब सांसे रुकने वाली हों। नाना जी बताते हैं के उस वक़्त जो डर और दिमाग की स्थिति थी वो आज़ादी की लडाई के वक़्त भी नहीं थी। न जाने कैसे उनके दिमाग में आया और वो जाकर एक बाल्टी पानी लेके आये और मिश्रा जी की पत्नी के ऊपर पूरा पानी उड़ेल दिया। वो एक दम निढाल हो गयीं। उनके ऐठते हुए हाथ पर वापस घूम कर अपनी जगह पर आने लगे और उधर मिश्रा जी को होश आ रहा था। उन्हें होश आया तो वो रोने लगे और पूछने लगे की वो क्या करें? उनका पूरा परिवार भी वहां नहीं था वो अकेले क्या कर लेते?

सबने मिलकर उन्हें धीरज बंधाया और फिर एक सज्जन जो की वहां से गुज़र रहे थे, वो हमारी कॉलोनी के निवासी भी नहीं थे। वो केवल वहां शोर सुनकर आये थे। उन्होंने एक ऐसे ही तांत्रिक की जानकारी मिश्रा जी को दी, और फिर मदद के लिए नाना जी के साथ मिश्रा जी और उनकी पत्नी को वेसे ही बेहोशी की हालत में उस तांत्रिक के पास ले गए।

जहाँ वे लोग गए थे वो तांत्रिक एक प्रसिद्ध मंदिर के पास रहता था। उन्होंने मिश्रा जी की पत्नी को वहां एक कालीन पर लिटा दिया और बाकि सब को आस पास से हट जाने को कहा। उस तांत्रिक ने काफी देर तक कुछ मंत्र पढ़ कर बेहोश पड़ी मिश्रा जी की पत्नी के ऊपर पानी के छींटे मारे उसके बाद कुछ काले तिल, फिर सरसों के बीज। मगर कोई प्रभाव नही हो रहा था। फिर वो ध्यान मुद्रा में बैठ गया और न जाने किसका ध्यान करने लगा। बाकि आये सब लोग बाहर एक चारपाई पर बैठकर कर खिड़की से सब देख रहे थे।

वो ध्यान में ही था के मिश्रा जी की पत्नी को होश आ गया और वो उठ कर बैठ गयी। उसके बाद वो ऐसे किसी से बातें करने लगी के जेसे कोई उनसे सवाल पूछ रहा हो। वो कोई अपना खेल नहीं दिखा रही थी सिर्फ जवाब के अंदाज़ में बोले जा रही थीं। उन्होंने जो जो बोला वो इस प्रकार था-

"नरयनी!"

"घाट के पास कॉलोनी में मेरा घर था।"

"पता नहीं। मैं तो सुबह उठ कर काम पर जाने वाली थी। तभी वहां वो आये और उन्होंने बताया की मैं मर चुकी हूँ।"

"एक बड़ी शक्ति हैं वो। नाम किसी को नहीं बताते वो।"

"मुझे भूख लगी है इसके जरिये ही में कुछ खा सकती हूँ। इसलिए इसका सहारा लिया।"

"कुछ खिला दो चली जाउंगी।"

"मुझे कैद करके क्या मिलेगा? मुझे जाने दो दुबारा अपनी भूख के लिए किसी को प्रेषण नहीं करुँगी।"

"हाँ हाँ। नहीं करुँगी। जब तक कोई मुझे परेशान नहीं करेगा।"

"मेरा भी कोई वक़्त होता है निकलने का अगर कोई उस वक़्त में निकलेगा तो मुझे जरुर देखेगा। मैं कैद होकर नहीं रह सकती।"

"मैं तो निकलूंगी और घुमुंगी भी। जिसको डर लगता है वो न निकले मेरे वक़्त पर।"

"हाँ।" "हाँ।"

"वही मेरा समय है।"

"कुछ भी, थोड़ी सी शराब, और कुछ भी।"

" ठीक है, मगर भूलना मत।"

ये सारी बातें कहने के बाद मिश्रा जी की पत्नी वापस धीरे से लेट गयीं और बेहोश हो गयीं। तांत्रिक ने अपना ध्यान तोड़ा और थोड़ी देर शुन्य में ताकते हुए बैठे रहे। उसके मिश्रा जी और मेरे नाना जी को अन्दर बुलाया और नरयनी के लिए एक बोतल शराब और खाने में कुछ कलेजी के टुकड़ो को रात के ग्यारह बजे से दो बजे के बीच वहां रखवाने को कह दिया जहाँ से वो अक्सर आवाज़ लगाया करती थी। मिश्रा जी मांस मदिरा को हाथ नहीं लगाते थे इसलिए उनके बदले ये काम नाना जी ने किया। और बताये अनुसार ७ दिन तक उस रास्ते से नहीं गुज़रे।

नरयनी का खौफ्फ़ अपने उफान पर था। लोग रात होते ही ग्यारह बजे के बाद घरो से निकलना तो क्या अपने घरो में भी दिखाई नहीं देते थे। नरयनी की आवाज़ सुनना तो आम बात थी लोग वहां सुनते थे और अपने अपने घरों में छुप जाते थे। उस वक़्त वहां कोई ऐसा मजबूत या फिर माहिर आलिम नहीं था जो नरयनी को कैद कर सकता। जिस चर्च के फादर ने उसे कैद किया था उनकी मृत्यु के उपरान्त वो फिर आज़ाद हो गयी थी।

नरयनी का वक़्त था ग्यारह से दो बजे तक। ये बात सब जान चुके थे और जो कॉलोनी छोड़ के जा सकते थे वो चले गए और जिनकी मजबूरी थी वो वहीँ सावधानी से रहते थे।

धीरे धीरे समय के साथ सब शांत होता चला गया। नरयनी फिर भी वहीँ रहा करती थी कभी कभी किसी को दिखती थी मगर जल्दी किसी को परेशान नहीं करती थी। लेकिन जो जो नरयनी के वक़्त में भटका उसे सज़ा भी मिली और समय के साथ ताकतवार होती गयी नरयनी आज भी किसी की पकड़ से बाहर है।

ग्यारह बजे से दो बजे तक का वक़्त आज भी उस लाइन में ख़राब माना जाता है। और जो इस बात को नहीं मानता उसे वो अक्सर किसी न किसी रूप में डर कर मान जाता है। अब नरयनी किसी पर उस तरह सवार होकर तड़पाती नहीं है लेकिन खौफ की वो तस्वीर आज वहां रह रहे बुजुर्गों के दिमाग में बसी है। कभी कभी लोग आज भी उसे देखते हैं मगर वो सिर्फ डरवाती है, कभी बिजली के तारों पर घूमते हुए तो कभी एक पेड़ से दुसरे पेड़ पर टहलते हुए।

मुझे ये सारी घटना मेरे नाना जी ने सुनाई थी। मैं, नाना जी, मेरे बड़े भईया, मामा जी और हमारे गुरु जी, हम सब एकत्र होकर रात में खाना खाने के बाद घर से बहार आँगन में ये सारी बातें कर रहे थे और नाना जी ने ये घटना सुनाई थी। सारी घटना सुनने के बाद मैंने गुरु जी से ऐसे ही पूछ लिया की "गुरु जी, इतने साल हो गए अब तो नरयनी चली गयी होगी न?"

उन्होंने जवाब दिया के "अभी उसे मुक्त होने में बहुत समय बाकी है, वो यहीं है। और हम सब उसकी ही बात कर रहे हैं इसलिए वो हमे ही देख रही है।" ये कह कर वो हमारे आँगन से सामने वाले क्वार्टर की सीढियों की तरफ देखने लगे।

गुरु जी का ये जवाब सुन कर मुझे अजीब सा डर लगा मगर गुरु जी की मौजूदगी से किसी बात का डर नहीं था। मैंने भी उस तरफ नज़र दौडाई जहाँ गुरु जी देख रहे थे, मुझे वहां कुछ दिखाई नहीं दिया सिवाए ३ कुत्तों के जो उस तरफ देख कर भौंके जा रहे थे।

धन्यवाद।